रीत मैं सेहमे, प्रीत के भय में । क्यों हम ना बहते, क्यों कुछ ना हम कहते । काल्पनिकता के चेते , क्यों आलोकिक्ता के भय में। स्वतंत्रता का जग यह, विडम्बना इसे कहते , सब एक समान , तो क्यों हम श्रेणीगत रहते। पौराणिक विशेषता के विश्लेषण से, आधुनिकता का सम्मान क्यों ना जानते । पेहलियाँ बुझाने से पहले, आधार क्यों हम मांगते। दुविधा में फंसे सब, खुसलता के मुकुट से, असहाय पर ना मानते। समाधान से भटक के, तर्क- वितर्क मै फसते, क्या मूल्य इसका न मानते। क्या दिखावा क्या रीजावा , दूषित फल जो हैं सिचाया , वक्त तो सब ने है बिताया , कोई नहीं है श्रेष्ठ यहां, ना फर्क किसने क्या कमाया क्या गवाया ।