विडम्बना का जग

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रीत मैं सेहमे,
प्रीत के भय में ।
क्यों हम ना बहते,
क्यों कुछ ना हम कहते ।

काल्पनिकता के चेते ,
क्यों आलोकिक्ता के भय में।

स्वतंत्रता का जग यह,
विडम्बना इसे कहते ,
सब एक समान ,
तो क्यों हम श्रेणीगत रहते।

पौराणिक  विशेषता के विश्लेषण से,
आधुनिकता का सम्मान क्यों ना जानते ।

पेहलियाँ बुझाने से पहले,
आधार क्यों हम मांगते।

दुविधा में फंसे सब,
खुसलता के मुकुट से,
असहाय पर ना मानते।

समाधान से भटक के,
तर्क- वितर्क मै फसते,
क्या मूल्य इसका न मानते।

क्या दिखावा क्या रीजावा ,
दूषित फल जो हैं सिचाया ,
वक्त तो सब ने है बिताया ,

कोई नहीं है श्रेष्ठ यहां,
ना फर्क किसने क्या कमाया क्या गवाया ।

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⏰ Last updated: Nov 25, 2020 ⏰

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