सूखी रोटियाँ

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सूखी रोटियाँ

देर रात जो हो जाती है,
फिर माँ को नींद नहीं आती है,
सुनती है जो दरवाजे पर आहट उसकी,
फिर माँ को कहीं जाकर राहत मिल जाती है।

"क्यों देर हो गई ? चल खा ले खाना।"
यह कहकर वो खाना निकालती है।
"रहने दो माँ, मैं खा लिया दोस्तों के साथ।"
यह सुन थाली की रोटियाँ भी सूख जाती है।

चली जाती है वो कमरे में चुप-चाप सोने,
और बेटा उम्र की मन-मस्त चादर ओढ़ लेता है।

कभी वो थमा देती थी गर्मागर्म रोटियाँ मोड़कर,
कभी शहद, तो कभी घी लगाकर,
और यूँही पूरा बचपन राजकुमार बन बीत गया,
माँ के आँचल में और पिता के छाव में
कभी पता ही नहीं चला दर्द क्या हुआ...।

थाली पर पड़ी सूखी रोटियाँ भी बोल पड़ी,
"हम तो तुम्हारे इंतजार में सूख गए,
पर तुम कैसे रिश्तों की गर्माहट को ही भूल गए?
पर तुम कैसे उस बूढ़ी माँ को अपना थोड़ा वक्त देना भूल गए?"


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दर्पण - मेरे मन का Where stories live. Discover now