ग़म

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यह मेरा ग़म भी कहीं ग़ज़ल ना बन जाए
यह मुसाफ़िर कहीं आवारा ना बन जाए

कौन कहता है सारे जहाँ को मालूम नहीं,
ख़बर नई तो नहीं जो दोहराता है हर कोई,
इश्तिहारों का कहीं क़हर ना बन जाए!

उसे भी है जरूर अपनी बेवफाई पे ख़ता,
कोई ऐसे तो नहीं पूछता किसी का पता,
किसी जुर्म का कहीं आधार ना बन जाए!

हमने देखा है चाँदनी की हर एक रातों में,
चाँद वह हँसता हुआ मसरूफ़ है बातों में,
यह सियाही कहीं तलवार ना बन जाए!


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