"चित्र"

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वो हवा ही थी जो उस पेड़ की शाख से पत्ते तोड़ लाई!

वो हवा ही थी जो जग दूर की माटी अपने आगोश में समा लाई,

वो हवा ही थी जो आज धीरे धीरे बंद खिड़की के तराशे हुए काँच पे खरोचें कर रही है,

वो हवा ही थी जो आज कुछ अनकहे बोल घोल लाई है अपने साथ!


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यूँ तो सुनसान सी है सड़क, यूँ तो सुनसान सा है शहर!

यूँ तो घरों की बिजलियाँ है गुल, यूँ तो खामोशी की है लहर!

ज़िंदा भी है या बस दफ़्न है, इस शहर के लोग, कब्र और बिस्तर में कहीं!

यूँ तो बारिश संदेश लाती है, भूले बिसरे गीतो के बोल लाती है!


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एक घर है, सड़क के आख़िरी छोर पर, अंधेरे में लिपटा एक घर,

एक घर, जिसके दरवाजे है बंद और दस्तक का जवाब सिर्फ़ खामोशी,

एक घर, जिसकी अधखुली खिड़की में एक पेड़ की डाल और कुछ पत्ते अंदर झाँक रहे हो!

एक घर जिसमे बस अदलिखे खत और अनसुनी कहानियाँ बसी हो!


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वहाँ वैसे एक शख्स है, बड़ी सी मूँछो वाला, कागज के उपर खड़ा,

हाथ मे एक घड़ी है, खराब क्यूंकी समय नहीं बताती,

और एक पुराना कोट, जिसकी धूल हटाओ तो नया से लगे,

उसकी आँखो में गुरूर और होठों पे हल्की सी हँसी

चेहरे पे मर्दानगी का ज़ोर और माथे पे सख्ती!


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खिड़की के टूटे काँच में से आ रही है चाँद की रोशनी,

अंधेरे को धीरे धीरे जैसे घायल कर रही हो,

पर घायल तो वो खुद हो चुके थे,

क्यूंकी रोशनी ने अंधेरा बुझा, दिल मे चिराग जला दिया!


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वो खड़ी थी, पानी की कुछ बूंदे उसकी कमर पे रुक गई थी,

उसके बदन से आ रही धीमी धीमी बारिश की महक,

उसके पैरो पे जैसे किसी ने मज़ाक में कीचड़ उछाल दिया हो,

और उसके हाथो के कंगन में चाँद का प्रतिबिंब!


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उसके होठ जैसे कोई गीत गुनगुना रहे हो,

उसके हाथ उसके घुटनो में चुबा एक काँटा निकाल रहे हो,

एक लहू की बूँद लकीर बनते बनते रुक सी गयी हो,

उसके मुंह से निकली दर्द की मीठी पुकार घुल सी गयी हो!


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मेजर साहिब, अपनी नज़रे उसपे टिकाए हैं,

पलके झपकने से इनकार कर चुकी है,

खूबसूरती उछल उछल उनका मन मचला रही हैं,

उन्हे अपने पास बुला रही है, नृत्य करते करते,

वो घूर रहे हैं पर उसे एक़टक, बिना मुस्काये, बिना हिचकिचाए!


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मेजर साहिब भी मजबूर हैं, अपने हालातों से,

उनके चेहरे पे मुखौटे हैं, दौलत के चढ़ाए,

पनिहारी तो मासूम सी कोयल है, जो बस बोल भूल गई है (अपने गीत के!)

उसे क्या पता उसकी खूबसूरती की वो कीमत लगा रहे हैं (बाज़ार में)


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उनकी नज़रों में जैसे वो बस गई हो, हमेशा के लिए,

वो काँटा जैसे चुभ गया हो, हमेशा के लिए,

जो बोल है गीत के, वो अब चले गये है हमेशा के लिए,

हवा में लहराते बाल, अब थम गये हैं हमेशा के लिए!


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पेड़ की वो शाख ही जानती है, इनके दिल के घावों को,

हवा जो बहती है यहाँ ही समझती है इन अरमानों को,

ये सपने, ये अरमान, ये ख्वाब, ये दर्द किसी चित्रकार के है,

दीवार पे तो बस दो चित्र टँगे हैं, एक दूसरे के सामने!




~ ~ ~ समाप्त ~ ~ ~

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