यह कैसे पाषाण पिघल कर आज वहें हैं
ज्वालामुखी फटा है कोई या
अम्बर से शोले बरसे हैंधरती का सीना चीरा है
नदियों के पत्थर टकराए
कैसे फिसले रूक न पाए
ध्वस्त हुए अस्तित्व-हीन होगर्व से मस्तक ऊँचा करके
जो छूने आकाश चले थे
मौन धरा पर पड़े हुए हैं
सिसके-सिसके सहमें-सहमें
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