Story 2

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To behno evam bhaiyon, apki Didi ne ye kahaani likhi thi Neelesh Misra ki Mandli ki sadasya banne ke liye application ke taur par likhi thi par got no response. Na haan na Na. Par aap zaroor bataiyega kaisi lagi ye kahaani

कहते हैं जिनोरा को सोम और अप्सराओं के नृत्य से ऊबे हुए किसी निर्वासित देवता ने बसाया था. एक मृत ज्वालामुखी की गोद में बसे हुए इस भूली बिसरी तहसील में हर वस्तु बूढ़ी हो चली थी. इन्ही में से एक बूढ़ा शास्त्री छत पर चटाई डालकर लेटा हुआ बापू के ऐनक जैसे गोल चंद्रमा से मोम को धीरे धीरे टपकता हुआ देख रहा था. शास्त्रीजी की श्रीमतीजी तो तीस वर्ष पहले ही दिमागी बुखार से चल बसी थीं. ले-देकर उनका बेटा अमित ही रह गया था सो वो भी दस साल पहले सेमेस्टर समाप्त होने के बाद नासिक से घर लौटते वक़्त ट्रेन के नीचे आ गया था. कितना मन था अमित का अपने दोस्तों के साथ मसूरी जाने का मगर शास्त्रीजी ने ही ज़िद की थी- "छह महीनों से तेरा चेहरा नहीं देखा तेरे बूढ़े बाप ने, तेरी माँ यदि होती तो भी तू छुट्टियों में घर न आता?" पिता का मोह- इसने तो शास्त्रीजी के जीवन का आधार ही उनसे छीन लिया. 


पुरानी यादों को कुरेदते हुए और खुद को हर बार की भांति कोसते हुए जाने कब झीनी चांदनी की ठंडक उनकी उंगली पकड़कर निंदिया रानी के दरवाज़े पर छोड़ आयी शास्त्रीजी को पता ही न चला.


तड़के साढ़े पांच बजे उठकर शास्त्रीजी ने झाड़ू-पोंछा करके स्नान किया फिर उजली धोती-कुरता पहनकर सुंदरकाण्ड का जाप किया. फिर पोहे-चाय का नाश्ता करने के बाद शास्त्री जी प्रतिदिन की भांति लाइब्रेरी की ओर चले. नौतपे की दुपहरी में वैसे तो अधिकतर दुकानें बंद थीं पर उनके दोस्त कल्लन पांडेय अपनी दवा की दुकान के काउंटर के पीछे बैठे हाथ से पंखा झल रहे थे. वहीं उनके दूसरे हाथ के पास अखबार में वर्गपहेली वाला पन्ना खुला हुआ था. शास्त्रीजी को देखकर वो हाथ हिलाते हुए बोले, "और भई शास्त्री, आज फिर लाइब्रेरी चले? नौतपे चल रहे हैं. सूर्य देवता का कुछ तो लिहाज रखो. जेठ के मौसम में वैसे भी वो बारात में फूफाजी की तरह उखड़े-उखड़े से रहते हैं."

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