झंकार

Shubhamq183

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#1 in poetry___7. 7. 18 and 19. 8.17 कागज़ के झरोखों से झांकते, मेरी स्याही में लिपटे अलफाज.... Еще

पत्थर की नारी
एक शहर
श्मशान
आ गए तुम
बादल और किसान
आस बाकी हैं
सहस्त्र क्रान्ति
शहादत का जशन
बातों में वो बात कहां
परिंदे
एक अधुरी दास्तां
मुसाफिर
ख्वाहिश
मुझे फिर से

तन्हाइयाँ

363 55 23
Shubhamq183

अक्सर ही मेरी तन्हाइयाँ मुझसे पुछ लेती हैं,
कि मैं इतना तन्हा क्यों हूँ?
तो मैं यूँ ही कह दिया करता हूँ --

किसी से रोज मिलने को,
पहुँचते थे चौराहे पर,
मगर आजकल आती नहीं है वो,
इसलिए तन्हा हैं हम।।

किसी की तस्वीर को सिरहाने रखकर के सोते थे,
इस ही ख्वाब में कि मुकम्मल हो मुलाकातें,
मगर वो मिले नहीं अबतक,
इसलिए तन्हा हैं हम।।

किसी के घर की गलियों से गुजरते थे हर रोज,
इस ही आस में कि झाँकेगी वो खिड़की से,
मगर अबतक न झाँकी वो,
इसलिए तन्हा हैं हम।।

किसी से बात करने को,
रियाज़ रोज करते थे,
मगर हिम्मत न हुई ,
इसलिए तन्हा हैं हम।।

किसी को देखने की आस में हँसकर के ही जगते थे,
मगर छिपकर के देखने से,
वो हासिल न हुई,
इसलिए तन्हा हैं हम।।

उसी के साथ रहना था,
उसे कुछ खास कहना था,
मगर कह न सके हम,
इसलिए तन्हा हैं हम
शायद इसलिए ही तन्हा है हम।।

                            --  शुभम

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