एक पत्थर की नारी,
कुछ सहमी, कुछ बेचारी,
लाचार नहीं है वो,
बस है वो खुद से हारीं,
समाज भ्रम के बंधन में,
जिसने उगली अबतक चिंगारी,
बेआवाज नहीं है वो,
बस है वो खुद से हारीं ,वो पत्थर की नारी,
कुछ असहाय, कुछ गरिमाधारी,
कसक नहीं है वो,
बस है वो खुद से हारीं,
क्रुऱता के तांडव पर,
जिसने बरसी अबतक बूंदाबांदी,
खामोश नहीं है वो,
बस है वो पत्थर की नारी,
कुछ बेबस, कुछ खुद से हारीं।-शुभम
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झंकार
Poésie#1 in poetry___7. 7. 18 and 19. 8.17 कागज़ के झरोखों से झांकते, मेरी स्याही में लिपटे अलफाज....