कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या होता होगा उन परिंदों का,
जिनके घर नहीं होते,
राह तो होती है,
मगर सफर नहीं होते,
लगता है शाम को ही उड जाते है वो,
महफूज़ ठिकानों को,
मगर इन सर्द रातों में ,
ठिकाने महफूज़ नहीं होते,
लगता होगा उन्हें भी खौफ इन अंधेरों से,
इसलिए वो रूक तो जाते हैं,
पर सो नहीं पाते,
सुना हैं वो परिंदे रोज निकलते है,
घर बनाने को,
मगर, बगैर तिनकों के सहारे वो ये कर नहीं पाते ।-शुभम
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झंकार
Poetry#1 in poetry___7. 7. 18 and 19. 8.17 कागज़ के झरोखों से झांकते, मेरी स्याही में लिपटे अलफाज....