सहस्त्र क्रान्ति

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धधक-धधक, भड़क रही,
ये अग्न मेरे रक्त की,
जलज सहज पनप रहे हैं,
मेरी अश्रु धार से,
गगन भी कोटि-कोटि धन्य,
हो रहा हैं त्याग से,
ये पग भी यूँ डगर-डगर भटक,
रहे है चिन्त मन,
अवश्य इस ही आस मे,
कि लक्ष्य ही वशिष्ठ है,
मगर सहस्त्र क्रान्ति ही,
कष्ट रिक्त वक्त हैं।

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