उन दिनों मैं बहुत दब्बू और अंतर्मुखी था। मेरा अधिकतर समय अकेले ही व्यतीत होता था, जिसमें मेरे साथ कोई ऐसा न था जिसे मैं अपना दुःख कह सकूँ। यद्यपि मैं अपने आप को संसार का सबसे दुःखी आदमी मान चुका था पर फिर भी मैं हमेशा मुसकुराता रहता था। पढ़ाई में मेरी इतनी रुची न थी और खेल - कूद से दूर - दूर तक कोई लेना - देना न था। अधिकतर समय मेरा किताबे पढ़ने में ही व्यतीत हो जाता। हाँ, यह विडंबना ही थी कि स्कूली किताबों को पढ़ने में मेरी रुची शून्य थी जबकी उपन्यास आदि वगैरह शायद उस समय अपनी पूरी कक्षा में सिर्फ मैं ही पढ़ता था।
मेरे अंतर्मुखी स्वभाव के कारण शायद मुझसे कोई मित्रता रखने का इच्छुक न था इसलिए कक्षा में भी मैं सबसे पीछे और बिल्कुल अकेला बैठता था। मेरी चुप्पी की हद यहाँ तक थी कि मेरे 'क्लास- टीचर' के अलावा मेरा नाम और अस्तित्व भी किसी और अध्यापक को ज्ञात न था। पढ़ाई न करने के बावजूद मुझे कमजोर कहना कठिन था, बल्कि मैं कक्षा के अन्य छात्रों से कुछ अधिक ही अच्छे अंक प्राप्त करता था, अतएव मेरे क्लास टीचर रघुकुल गुप्ता को मेरे से अत्यंत प्रीति हो गई थी। मुझे भी उनसे एक प्रकार की निःशब्द और गूँगी श्रद्धा हो गई थी।
मैं कक्षा में कभी कुछ न बोलता था, मेरे सहपाठियों के लिए मेरा अस्तित्व शून्य था इस बात का अंदाजा मुझे उस दिन हुआ जब मैंने शायद ही स्कूल के दस सालों में चौथी या पांचवी बार किसी से बात करी हो।
नौंवी कक्षा में आने के बाद मेरे अतिरिक्त शेष सब छात्रों ने अपने आप को उन्मुक्त और स्वतंत्र- सा महसूस किया इसलिए दिनभर कक्षा में उधम मचाना उनका कार्य था। शिक्षकों का मजाक उड़ाना (जिसके बारे में कल्पना करना भी मेरे अंतर्मुखी मस्तिष्क को न आता था) उनके लिए बड़ा सहज था।
एक दिन आधी छुट्टी के समय मैंने अपने डर के पर्दे को थोड़ा सरका कर गोविंद से कहा - “सुनो! क्या तुम्हारे पास एक पैन होगी?”
ऐसा न था कि मेरे पास पैन न थी पर बात करने के लिए कोई बहाना आवश्यक था। इस एक लघु- वाक्य को बोलने में, मुझे कितनी कठिनाई हुई यह मेरे अतिरिक्त कौन जान सकता है?
गोविंद कक्षा का सबसे उपद्रवी किन्तु सबसे होशियार छात्र था। अध्यापकों का घृणा- पात्र होने के बावजूद उनका प्रिय छात्र था। उसका स्वभाव घोर रूप से बहिर्मुखी था जिसपर मुझे अक्सर विस्मय होता था। कक्षा में वह इतने स्वतंत्र और निर्विघ्नता से कक्षा की लड़कियों से बातचीत करता था जितना तो मेरी कल्पना के ही परे थे।
गोविन्द ने कुछ उपहास- भाव से कहा - “अरे! तुम्हारे मुँह में भी जुबान है?”
और यह सुनकर आसपास के छात्रगण हँसने लगे। मेरी आँखों से आँसु छलक पड़े, जीवन में मैंने कभी इतना साहस भी न करा कि अपना मुँह किसी के आगे खोलूँ और जब खोला तो मुझे मेरे लिए कुवचन और उपहास सुनने को मिलता है!
पीछे खड़ी एक कन्या ने कहा - “तुम उसकी बात का बुरा न मानो! उसका स्वभाव ही ऐसा है।” और मेरी तरफ एक पैन बढ़ाकर बोली - “यह ले लो!”
मेरे मुँह से ‘शुक्रिया’ कुछ अंग्रेजी लहजे में निकला। इसके बाद मैंने कोई बात न कही।
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जब मेरे विषय में धारणाएं बदल गईं
Short Storyयह कहानी भारत के आजकल के अंतर्मुखीपने से ग्रसित एक ऐसे युवक की कहानी है, जो बहुत प्रतिभावान है किन्तु अपने अंतर्मुखी स्वभाव के कारण कक्षा में कोई उससे बात नहीं करता और यहाँ तक की अध्यापकों के लिए भी उसका अस्तित्व शून्य है। पूरी कक्षा उसे दब्बू, किता...