Untitled Part 2

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मेरे उपन्यास 'कलरव के सारथी' के कुछ अंश........
"सर जी,आज तो स्कूल में साठ सत्तर बच्चे ही आये हैं."भुवनेंद्र ने उस दिन प्रधानाध्यापक रामसजीवन राजपूत से कहा.
कार्यभार ग्रहण करने के बाद उसका आज अगला दिन ही था.
"अरे भुवनेंद्र भैया,रोज इतने ही बच्चे आते हैं.इनको नहीं सुधारना,आप परेशान मत होओं."
"लेकिन......"
"अरे आप हमारे स्कूल में काम कर रहे हो भैया,हमारे यहाँ कोई चेकिंग करने नहीं आने वाला.यहाँ अपना राज चलता है.कोई आएगा तो कह देंगे कि बहुत कोशिश करी,गाँव वाले बच्चों को खेतों पे काम करने को लिवा जाते है.हम का बच्चों को पकड़ कर लावें.देखो अपने विभाग का तो कोई कुछ कहने वाला नहीं.सब जानते हैं अपन को.अपन तो समय काटो और तनखाह लेओ.जा गंगा ऐसे ही बहती रही."
रामसजीवन का भाषण और लंबा चलता लेकिन भुवनेंद्र ने उनकी बात को बीच में ही काटा....."सर जी गरीबों के बच्चों को यदि हम कुछ लिखा पढ़ा देंगे तो उनका बहुत फायदा होगा."
"अरे जब मताई..बाप नहीं चाहत के बच्चा पढ़े तो तुम का करोगे भुवनेंद्र बाबु."रामसजीवन खड़ी बोली बोलने की कोशिश तो करते परन्तु बुन्देली शब्द उनके मुंह से सहज ही निकलते थे.

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⏰ पिछला अद्यतन: Jan 03, 2015 ⏰

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