बहस का निष्कर्ष

179 5 3
                                    

पूरे सर्वेक्षण में यदि हम देशी विदेशी पाठकों की संयुक्त राय पर विचार करें तो यह पाते हैं कि सम्पूर्ण बहस का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला . हांलांकि देशी पाठकों में मुबई के बी उन गिरि तथा आरा के अशोक दुशद सहित कुछ पाठकों की टिप्पणियां असंयमित भी रहीं और सम्पूर्ण बहस का ऐसा कोई अंतिम निष्कर्षकारणी परिणाम नहीं निकला जो मीडिया पर प्रभाव छोड सकता परन्तु इस समूची बहस का एक परिणाम तो अवश्य निकला है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले क्षेत्र में भी अब हम दलितों की सक्रिय भागीदारी की बातें करने लगे हैं। इस समूची बहस का सबसे अधिक सार्थक हिस्सा यह रहा कि मीडिया के प्रति दलितों की जागरूकता प्रदर्शित हुयी ।

यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया कि मीडिया में अभी भी अच्छे लेखकों, विचारकों औऱ मनीषियों की कमी है और देश में खबरें तो आती हैं पर उनमें पूर्णता का अभाव होता है. आरक्षण से समस्या और विकट हो जाएगी लेकिन वास्तविक रूप से देखा जाए तो दलित यदि काबिल हैं और उसे आरक्षण चाहिए तो वो उन्हें दिया जाना चाहिए जो योग्यता होते हुए भी आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं.

भले इस बहस का कोई अंतिम परिणाम अभी प्रदर्शित नहीं हो पाया हो परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि किसी भी चट्टान को तोडने के लिये उस पर हथौडे से हजारों चोट करनी होती हैं तभी जाकर वह टूटती है । यदि वह चट्टान हजारवीं चोट पर टूट कर बिखरती है तो उस पर की जाने वाली पहली चोट का महत्व कम नहीं होता क्योंकि बिना इस पहली चोट के वह हजारवीं चोट संभव ही नहीं हो सकती थी। मीडिया में कार्पोरेट सेक्टर के हावी होने से इस मजबूत चट्टान के टूटने के लिये अभी हजारों अनेक चोटें करनी होंगी।

You've reached the end of published parts.

⏰ Last updated: Nov 04, 2013 ⏰

Add this story to your Library to get notified about new parts!

भारतीय मीडिया में दलितों की स्थितिWhere stories live. Discover now