भारतवर्ष के हिन्दी पाठकों की राय विविधतापूर्ण रही शहडौल के प्रिय भारत पैराणिक का मत रहा कि मीडिया इंसान और दुनिया के बीच संवाद की कड़ी हैं. ये जितना ज्यादा लोगों के बीच जाएगी, उतनी अच्छे तरह से पहचान पाएगी.. मीडिया को जाति से अलग होना चाहिए, इसे मानव समाज की बेहतरी के लिए भूमिका निभानी चाहिए. वहीं पटना विहार के नवीन कुमार नीरज का मत रहा कि मीडिया ही नहीं, दलितों को भारत में कहीं भी उचित स्थान प्राप्त नहीं है. देश की आजादी के बाद से आज तक दलितों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है., जिन लोगों ने शुरू में अपना स्थान बना लिया वही आज हर जगह पर अपने सगे संबंधियों को स्थान देने लगे हैं. चुनाव में आरक्षण इसलिए दिया गया था ताकि दलितों के प्रतिनिधि उभरकर आएँगे और उनके पैरोकार होंगे. लेकिन आज देखें सभी आरक्षित जगहों पर उनके सगे संबंधी को ही जगह मिलती है और दलित आज भी दलित है. बघवारी-मदरहिया, सीधी, मप्र के रोहित सिंह चौहान का मत रहा कि मीडिया में किसी भी प्रकार के आरक्षण की आवश्यकता नहीं है और न तो आरक्षण होना चाहिए. किसी भी जाति-धर्म के इनसान के मन से इंसानियत निकल सकती है. अगर हम दलित वर्ग के उत्थान की बात करते हैं तो वास्तविक पत्रकारिता को छूट देनी होगी यानी जिस मिशन से पत्रकारिता की शुरुआत हुई और जो मिशन पत्रकारिता की मां है उसे बहाल करना होगा. अगर हमने आरक्षण लादने की कोशिश की तो मीडिया भटक जाएगी और सही लक्ष्य नहीं मिलेगा.
कुछ हिन्दी पाठकों ने विषय से इतर जाकर भी अपनी राय प्रकट की. जैसे आरा के अशोक दुशद का मत रहा कि दलितों को अपना प्रचार माध्यम कायम करना चाहिए. सवर्णों के वर्चस्व वाली मीडिया आज दलितों को भागीदारी देने को तत्पर है इसके पीछे राजनीति है कि दलित मीडिया स्वतंत्र रूप से खड़ी न हो सके. सवर्ण वर्चस्व वाली मीडिया का चरित्र सबके सामने है. सोशल मीडिया में दलितों की भागीदारी बढ़ी है जो कि मुख्यधारा की मीडिया को कड़ी चुनौती दे रही है. अप्रासंगित होती मुख्यधारा की मीडिया में दलित भागीदारी क्यों चाहेगा? इसी के अनुरूप मुबई के बी उन गिरि का मत रहा कि मीडिया में आरक्षण की बात करना बेमानी है. दरअसल मीडिया बुद्धिजीवियों का क्षेत्र है. बुद्धिजीवी आरक्षण से नहीं बल्कि अध्ययन और अनुभव से बनते हैं. एक पत्रकार खबर के साथ तभी न्याय कर सकेगा जब वो बुद्धिजीवी होगा, ज्ञानवान होगा न कि आरक्षण के बल पर बना पत्रकार. इसी प्रकार उतरौला बलरामपुर के सुरेश वंद का मत रहा कि मीडिया में आरक्षण? कभी नहीं. अगर चौथा स्तंभ सवर्णों का है तो पिछड़ों और दलितों को अलग से अपना पाँचवाँ और छठा स्तंभ बनाना चाहिए.क्योंकि जब चौथे खंभे में कोई वैकेन्सी नहीं तो वो हिस्सेदारी कहां से देंगे.
भारतीय पाठकों के मतों में सबसे स्पष्ट और इमानदार मत नयी दिल्ली के अरविंद कुमार सिंह का रहा कि यह कहना गलत है कि मीडिया में केवल दलितों की हालत खराब है..वस्तुतः कुछ ऊंची जातियों का ही भारत में मीडिया पर कब्जा है. यह कब्जा संपादकीय टीम से लेकर जिले और कस्बों के संवाददाता नेटवर्क तक में है. नीति निर्माताओं की मानसिकता में बदलाव लाए बिना दलितों और वंचित समुदायों का भला नहीं हो सक. कुछ पदों को आरक्षित कर देने से न न्यूज रूम का स्वरूप बदलेगा न दलितो या वंचित समुदाय के पक्ष की पत्रकारिता हो सकेगी. पाठक या दर्शक के रूप में जब तक ये वंचित वर्ग खुद प्रतिरोध नहीं करते, यह बहस ही बेमानी है.
इस विषय पर एक नऐ कोण से विचार करते हुये इलाहाबाद के श्री राजीव कुमार रंजन का यह मत प्रभावशाली रहा कि
मीडिया में दलित प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण दलितों से संबंधित समस्या सामने नहीं आ पाती. दूसरी चीज़ मीडिया आज कॉर्पोरेट सेक्टर का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए वह नहीं चाहेगा कि उसका वर्चस्व कोई उससे छीन ले.
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भारतीय मीडिया में दलितों की स्थिति
Humorमीडिया में दलित प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण दलितों से संबंधित समस्या सामने नहीं आ पाती.