किस्सा एक मुलाकात का।

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मुझे आज तक़दीर ने कुछ देर और रोका उस जगह
मेरे कॉलेज के गलियारों मे फिर नज़र आयी वो मुझे
वो दूसरी तरफ़ आगे बढ़ती रही
मैं उसी तरफ़ उसे देखता चलता रहा
उसकी नज़रे ज़मीन पर थी मेरी नज़रे बस उसी पर टिकी
मैं चलते चलते किसी से टकरा गया, सँभालते ही खुदको
मैंने फिर उसे देखना चाहा,
वो नज़र नहीं आयी फिर मुझे,
मैं आगे भागा, मै फ़िर पीछे भी आया
मुझे दिखी नहीं कहीं भी वो ,
मुकद्दर मेरा फिर दरमियान आया।

कुछ वक्त बीता तब मैं घर को निकल पड़ा था
जो मेरे संग था वो कहता "रुकिए", उसका दोस्त पीछे आन पड़ा था
मैं भी पलटा तो मुझे वो फिर इसी तरफ़ चलती नज़र आयी
उसे देखते ही मैं वापिस फट से मुड़ा गेट को चल दिया
मेरे संग जो था उसको बताया मैंने के "देख अपने पीछे ही है।"
"कौन-सी है ?" वो कमबख्त भी पीछे मुड़ते ही कह गया
मैं मुड़ा उसे देखने को
मगर जो देखा उसे, मैं देखता ही रह गया।

धूप उसके गालों को चूम सी रही थी
वो भरे उजाले मे चमक सी रही थी
मानो के चांद ने भी कभी उसी से रोशनी चुराई होगी
मेरे ग़म उसे देखते ही ओझल हो गए
उसकी मुस्कान मानो किसी वैद की लिखी दवाई हो
वो अब भी नज़रे ज़मीन से मिला चल रही थी
मानो नज़रे उठाने पे जैसे दुनिया से उसकी लड़ाई हो।

मगर उससे मुख्तसर होना मेरे लिए असान नहीं
मेरी हिम्मत मुझे इज़ाज़त नहीं देती के उससे कुछ कह पाऊं मैं
ग़र पहचानने से ही इंकार कर दे वो
इतना हौसला नही फ़िलहाल के नया ग़म सह पाऊं मैं
तो मैं गेट पार करते ही रुक गया
के गुज़रना तो उसे यही से है
अब तो बहाने से मुलाक़ात होगी,
शायद अब भी चेहरा पहचानती हो मेरा
उसी रोज़ के किस्से पर अब कुछ बात होगी।

तो वो आयी भी ,
मैंने देखा भी उसे ,
मैं रुका भी , वही ठेहरा रहा मै
मैने सोचा वो यही से जाएगी
जाते जाते नज़रे हमारी मिल ही जाएँगी
देखते ही उसको मुस्कुराऊंगा मैं
गर वो भी मुस्कराई
तो "Hii" कह डालूंगा मैं
तब फिर शायद हमारी बातें शुरू हो जाएँ
क्या पता मेरा नंबर मांग लेती वो
मैं कहता फ़िलहाल जाना नहीं और मान लेती वो।
क्या मालूम मेरे सपने उसे लेकर आज टरु हो जाये
फिर कूल बन कह दूँ मैं "चलो एक कप ब्रू हो जाए"

कदम आगे बढ़ाती रही , आयी भी वो , वो गुज़र भी गयी
मुझ तक नही, मेरे पार कुछ दोस्त खड़े थे उसके वो जा उन संघ ठहाके लगाने लगी।

वो जुल्फे खोल कर आयी थी
हस्ते-हस्ते अपनी जुल्फों को लपेटा उसने
बालों का एक गुथ बना डाला
जुल्फ़े काफी घनी .. घुमावदार थी उसकी
फिर भी उसकी जुल्फ़ेे मुझे
मेरी जिंदगी से तो कम ही उलझी नज़र आयी
मगर मौका अब जा चुका था
तो पहली फ़ुर्सत में पार हो गया मैं
जाते जाते वो कम्बखत साथ का चीख पड़ा "पीछे ही तो है",
मैंने तेजी बढ़ायी उसको भी ले फरार हो गया मैं।

हाँ,
एक अर्से बाद किसी के वज़ूद ने
यह सुकून दिया है मुझे
मेरा रास्ता उसे सोचते हुए बीत गया
वो नहीं तो ये कहानी साथ है
मैं क्या हारा मैं क्या जीत गया।

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