मुकदमा

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"मैं! सुगंधित शरीर वाली राजकुमारी!... एक सूतपुत्र को अपना पति स्वीकार नहीं कर सकती!!!"

द्रौपदी के वो शब्द विषबुझे बाण की तरह कर्ण की आत्मा में गड़ गए थे, उसकी पीड़ा, उसका दर्द किसी को नहीं दिखाई दिया। उसके छलनी होते आत्म सम्मान का रक्त रिस-रिस कर धरा को रक्तरंजित कर रहा था।

हर तरफ उसकी तरफ़ घृणा से देखते लोग, उसके अपमान पर निर्लज्जों की तरह हँसते लोग!.... कर्ण यह कैसे सहन करता? और कब तक? क्या है कोई कवच और कुंडल जो उसे इस अपमान से बचा सके?

उसने अपनी आँखें बंद कर ली, यह दुनिया तो देखने लायक भी नहीं है, अपने अपमान को सहन करने की अंतिम सीमा के पार जाकर उसके मुँह से चीख निकल पड़ी.... एक जोरदार चीख!!

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"मिस्टर देव!... मिस्टर देव!"
"अपने मुवक्किल से कहिये की सीधे खड़े रहें मिस्टर माथुर!" जज ने सख्त लहजे में कहा तो माथुर साहब ने फिर से आवाज लगाई "देव!.... देव!!"
मैंने अपनी आँखें खोली तो मुझे अहसास हुआ कि मैं कहाँ था। महाभारत में अपमानित होने वाला वो कर्ण भी मैं ही था और आज भी अपमानित होने वाला देव भी मैं ही हूँ!

"मैं एक कचरा उठाने वाले को अपना पति नहीं मानती!.... " उसके शब्द मेरे कानों में पिघले शीशे की तरह पड़ रहे थे।

"मैं एक कचरा उठाने वाले को अपना पति नहीं मानती!" उसने फिर से कहा।

सामने कटघरे पर मेरी अपनी पत्नी माया जिसे मैं जान से भी ज्यादा चाहता था, वो मेरे बारे में सबके सामने ऐसा बोल रही थी।

"माया!..." मैंने चीखते हुए कहा तो उसने जज साहब की तरफ़ देखते हुए हाथ जोड़कर कहा "देख लीजिए जज साहब! जब यह आपके सामने मेरे साथ इस तरह से बात कर सकते हैं तो सोचिए कि घर पर मेरे साथ क्या करते होंगे?"

"यह सब झूठ है!" मैंने चीखते हुए कहा तो जज साहब ने मेरी तरफ घूरते हुए कहा "अदालत में बदतमीजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी मिस्टर देव!"

हलाहल - प्यार का विषOnde histórias criam vida. Descubra agora