वक़्त थम ने लगे तो

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दो वर्ष हो गए है कक्षा 1२ को पास किये अब सारा दिन घर मे ही गुजरता है केवल शाम को छोड के,न जाने क्यों शाम का वक़्त परिंदो की तरह आज़ाद रहना चाहता है इसलिए मैं शाम को ही घूम ने निकलता हु कई बार तो दिल घर आने को नही करता मगर कुछ कर भी नही सकते ,बचपन की बात अलग थी ,उस वक़्त घर  मे कम रहा करते थे और चिंता भी होती थी तो इस बात की कल कौनसा खेल खेले गए आज मेरी बैटिंग नही आई ,क्रिकेट से बड़ा लगाओ था मुझे पूरा दिन दोस्तो के साथ खेलने मे गुजर जाता था और घर आ के किताब पढ़ते पढ़ते सो जाया करता ,बहुत बार तो तो माँ मुझे डॉट के उठा लिया करती थी मगर कभी मेरी गहरी नींद की विजय होती, अब वक्त बदल गया है रात होती है मगर नीद नही रही सोचा था थोड़ा पढ़ लिख लिया है कोई नौकरी तो मिल ही जाए गई मगर अब मालूम होता है थोड़े से कुछ नही होता मगर ऐसा नही है कि मैं थक गया हूं प्रयास करता रहता हूं न जाने क्यों दिल मे के ख्याल रहता है ही है कि कुछ बेहतर हो ही जायेगा

कक्षा 7 तक मैं ने अपने शहर से दूर राजस्थान के बीकानेर शहर मे की वहाँ ज़िंदगी की अलग छाप है जो मेरे मस्तिक मैं बहुत अंदर तक है जिसे भुलाना शायद असंभव हो क्यों कि व्यक्ति अपने सुख मे बिताये दिन कभी नही भूलता
वहाँ और अभी के ज़िन्दगी मे बहुत अंतर आ गया है लगता है कुछ दिन पहेले ही कि बात है जब मैं पतंगों के पीछे भाग रहा था, होली ,दीपावली नवरात्री जैसे पावन त्योहारों मैं मेरी कितनी रुचि हुआ करती थी पूरा दिन मंदिरो मे गुजर जाया करता था वो बात अलग है कि हम सारे मित्र वह लुका छुपी जैसे खेल खेला करते थे उस कच्ची उम्र मे जितना ज्ञान था वो बस यही था कि मंदिर के बहार से चपल उतार के जाना है
सुबह से रात के आरती के बाद ही हम घर जाते थे कभी कभी पंडित जी के कहने पे हम उनकी मदद भी कर दिया करते
इनाम स्वरूप वो हमें बचा हुआ नारियल दे देते थे जो हमारे लिए किसी पुरुस्कार से कम ना था
हमारे मकान के पास मे दुर्गा माता का मंदिर हुआ करता था विशाल मंदिर ,दिन भर लोगो से भरा रहता नवरात्रि के दिनों मे ऐसा लगता था मानो मेला लगा हो हजारो लोगो की जनसंख्या माता के दर्शन के किये आती थी सबकी मन्नते और मनोकामना होती होंगी मगर हमारी बचपन से आज तक बस एक ही रही ,फ़ौज मैं भर्ती होने की बचपन मे तो वैसे हुम् ज्यादा मागंते नही थे मागने का सिलसिला जब से होस आया है तब से है,नवरात्रि के दिनों मे देहसेहरा जब आता तो हम रावड़ बनाने मे वस्त हो जाते मटकी मे कोयले से दो बड़ी आँखे बना देते एक घुसेल चेहरा मानो उसे अपने जलाये जाने से नारजगी हो और नाराज़ीगी होती भी क्यों नही अंत मे हम उसे जला ही देते कुछ सड़ मे हमारी मेहनत राख हो जाती थी मगर उसे किसी को कोई आपत्ति ना थी ,देहसेहरा से दीवाली का समय पटाके जलाने या ढूंढ ने मे लगता व्यतीत हो जाता
मेरा स्कूल कुछ 6-7 किमी दूर शहर के बाजार के दूसरी तरफ था ,मुझे याद हैं मैं  अक्सर बस के पिछली सीट पर बैठ करता  था।स्कूल मे मेरे ज्यादा तक मित्र मेरी उम्र से बहुत बड़े थे और मुझे भी उनका साथ अच्छा लगता था मैं कभी उस उम्र मैं उनकी भावनाओं और जीवन के दुख मे मुस्कारते चेहरे नही समझ पाया मगर अभी सोचने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने भी कभी इस पीडा से गुजरे हो गए जिससे आज हम दुखी है ,एक भैया का तो चेहरा अभी तक आखो से गया नही है मुझसे वो हमें से मुस्कुराते ही मिले उनकी मुसकान को देख कर मुझे बहु बेहतर अनुभव होता था ,स्कूल बहुत बड़ा था अनेको बच्चों को इंटरवल मे देख कर मैं कभी कभी घबरा भी जाता, वक़्त बड़ी रफ्तार से बदला ,स्कूल के दिन खत्म हो गए अब तो कॉलेज मैं दाखिला ले लिया है और एक वर्ष भी हो गया है ,कॉलेज और स्कूल मे काफी फर्क है यह दोस्त बनाने का दिल नही करता ।ना जाने क्यों अपने से ही मतलब रह गया है ऐसा ना है कि मे बहुत परेशान हु मगर जीवन बढते रहने से बचपन के कुछ पल जो आखो मैं आंसू ले आते है उनको याद कर के कभी कभी उदास हो जाता हूं।

बचपन हर किसी का अच्छा होता है ,अब वो हस के कटे या रो के क्यों कि जीवन की गाड़ी जैसे आगे बढती हैं जीवन मे कठिनाएय और मुश्किले बढ़ती रहती है ऐसे मे हमे अटल खड़े रहने का प्रयास करना चाइए

वक़्त थम ने लगे तोWhere stories live. Discover now