शुरुआत

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     हुत दूर से अपनी कदमो की कसरत करते हुये, थक हार कर एक पत्थर पर आकर मैं बैठ गया। उस वीरान रेगिस्तान में इतनी गरम हवा चल रही थी की कोई मजबूत जिस्म भी भुट्टे की तरह सेख जाए। उस तपते गर्मी ने कदम सख्त कर दिए थे और गला सुखा, अपने कंधे पर लटकाए बैग से मैंने पानी की बोतल निकाली और उसे झट से मुँह से लगा लिया। रेगिस्तान में पानी से बुझी प्यास को आब-ए-हायत का एहसास क्यों कहा जाता हैं? यह मुझे समझ आ गया। मैंने अपने गले में टंगे अपने DSLR को उतारा और उसकी लेंस साफ करने लाग। हवाओं में चलती धूल के कारण वो काफी खराब नजर आ रही थी। तभी मेरी नजर रेगिस्तान में खड़े उस एक अकेले घर पर गयी। ईंटों और पत्थर से खड़े उस टेढ़े मेढ़े मकान को में घर कहूँ?  या झोपडी...यही उलझन थी।

    मैने दरवाजे पर दस्तक लगायी, अंदर से किसी की आहट सुनी पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला। मैंने फिर एक बार कोशिश की… इस बार दरवाजा खुला और एक अधेड़ उम्र का आदमी मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उसका बदन काफि मैला था, शायद हवा में लिपटी मिटटी उसके बदन के पसीने चिपक गयी थी। उसकी दाढ़ी तो बड़ी थी पर उसके बाल भी उसकी इस रेगिस्तान में अकेले मौजूदकी के मेरे मन में उठे सवालो की तरह उलझे हुए थे। उसके सर पर उसका धरम चिल्लाती हुई एक गोल सफेद टोपी थी। और उसकी निगाहें उसके बाहर आते से ही मुझे सर से पाँव तक घूर रही थी। मैं कुछ कहता उससे पहले जनाब बोल पडे,

"मुसाफिर हो?"

मैने सिर्फ हामी में अपना सर हिलाया।

"जलापूर देखना चाहते हो?"

शायद वो कोई नजूमी ही था। उसके सवालो में ही मेरे मौजूदा मक़्सद के सारे जवाब थे। मैंने फिर हामी भरी। उसने आगे कोई सवाल न कर अपने जूते पहन लिए, कोने में रखी एक लकड़ी की काठी हाथ में ली और दरवाजे पर कुंडी लगा कर वो किसी एक समत निकल पड़ा। दो कदम आगे चल कर उसने मुड कर मुझे देखा और कहा, 

"चलिए जनाब, देरी हो रही है।"

मौजुदा हालात से चौका हुआ में, जो उस आदमी के बंद दरवाज़े पर खड़ा था, अभी उसके पीछे चलने लगा।

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