श्रद्धांजलि

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ख़ामोश थी रातें ,सूनी थी सडकें 

पर ...................

उस सन्नाटे को बेधने कोई न आया,

और अब मैं अखबार के पन्नों में ,

मन सोचता है ,

मेरे ख्वाबों की तदबीर अब सन्नाटे की चीखें !

मैं जीती थी अपने सपनों के लिए ,

सांस की हर आह पे मेरे सपने थे ,

जो माँ की आस और पिता की उम्मीद थे ,

जो मेरे अन्दर जीते थे .

सपनों से सजीले अरमान को ,

दरिंदों ने चकनाचूर कर दिया ,

मैं रोई , बिलखी , चिल्लाई , 

गिड़गिड़ाइ , छोड़ दो मुझे ,

अपने जिस्म के हर कतरे तक ,

मैंने जी तोड़ कोशिश की,

हाथ , दांत , नाखून तक ,

पर कुछ न कर सकी ,

 जी रही थी ।

सोच रही थी क्या हूँ मैं ?

मैं जिससे संसार का सृजन , वंश वृद्धि ,

वही स्त्री जो माँ दुर्गा , काली , सावित्री , लक्ष्मीबाई

और मैं बेबस लाचार ,

आँखें निर्निमेष थीं ,

अश्रु भी अब कराह व दर्द का साथ देने को तैयार न थे ,

बस थी तो मेरी सांसें ,

जो अब भी चल रही थीं ,

मैं जी रही थी ..................

 कोई न आया ,

मेरी पुकार किसी ने न सुनी ,

मैं लहूलुहान , 

किसी भी दर्द से परे,

हैवानियत और दरिंदगी का सुबूत,

सड़कों पे फिंकी हुई,

चील-कौवों द्वारा नुची लाश की तरह,

पर मैं जी रही थी ...........

रौशनी की किरण उगी ,

पर मैं तो थी ही नहीं ,

जिन्दा लाश ,

पर मैं जी रही थी ,

अब क्या महसूस कर रही थी,

वो तन मन से परे था,

बस दर्द और कराह  से ही रिश्ता जुड़ा था ।

लोगों की दुआओं में,

कैंडल की रौशनी में ,

जमाने की जुबां  पे ,

रेडियो टीवी की सनसनी खबर में ,

पुलिस केस में ,

कागज़ में ,

किसी के आंसुओं में ,

किसी के डर में ,

जी रही हूँ मैं ......

कि काश ! कोई वो खामोशी तोड़ देता,

तो आज मैं भी जीती थी ................

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⏰ Last updated: Nov 26, 2014 ⏰

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