पाया हमने जीवन एक समान
सम भाव से हैं उनकी सन्तान
निष्पक्ष भाव से देती हैं जननी
अपनी ममतामयी क्रोड़ मे स्थान
सूर्य, शशि व प्रकृति से कदापि
पाते हैं हम नहीं विषम भाव से
प्राप्त अनुपम ,अनन्त उपहार
फिर ऊँच -नीच व जातिवाद
हेतु बेमाने विवाद आखिर क्यों?
अस्तित्व पर किसी के भी होता क्रमशः कुठाराघात आखिर क्यों?कहने को माता दोनो को गर्भ में
भावी शिशु को रखती है 9 ही माह
स्वयं के अन्दर ही देती जीवन आहार
स्नेह ममता से होता दोनो का संचार
सम भाव कष्ट वेदना से पाये जीवन
फिर बेटा -बेटी को लेकर ये व्यर्थ ही
होता आया प्रलाप आखिर क्यों
बेटा बेटी मे पक्षपात आखिर क्यों.
दोनो है निज सन्तान तो फिर एक की
उपेक्षा क्षण-क्षण स्वजनो से फलतः
उनकी घटती क्रमशः गणना आखिर क्यों?नर और नारी दोनो से ही बनता है
यह जीवन संसार नही, किसी एक
बिना यह. जीने का आधार नहीं
दोनो स्वयं मे अपूर्ण दूजे के हैं पूरक
फिर निज श्रेष्ठता गिनाने की पँक्ति में
स्वयं की वर्चस्व कायम करने हेतु ये
नित बढ़ता स्वबखान आखिर क्यों.?
नही कल्पना किसी एक बिन भव की
तो आपस में भेदभाव आखिर क्यों?
कहने को बुद्धिजीवी हम सब हर विषयावगत है,फिर भी हम सबको
नही हो रहा अब भी भान आखिर क्यों?
प्रश्न पूर्ववत सा अभी.भी वही है जो
होता आया है अब तक हो रहा नही
बदलाव अब तक, आखिर क्यों??😢
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