एक सुबह ऐसी भी....

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सुबह की किरणों ने आज भी मेरे द्वार पर दस्तक दी
आज उसकी थपथपाहट में वो उल्लास ना था
सहमा-सहमा घर की दहलीज़ पर
याचक की भांति खड़ा
मानों भीतर आने की अनुमति चाहता हो,
लेकिन यह क्या??
वो चमक वो मुस्कराहट वो गरमी
ना थी उसके मुखमंडल पर
उसके कदम थकित
असहाय से प्रतीत हुए
मुरझाया ,कुम्हलाया चेहरा
गालों पर आँसुओं की लकीर
उसके दर्द की कहानी कह रहे रहे थे
कैसा था आज का दिन??
कहाँ छिप गया मेरा सूरज??
जिसकी स्मृति मात्र से
स्मित हास्य छलक जाता था
मेरे मुखमंडल पर,
हर पल मेरी मुस्कान का आधार
होकर थिरकता था होठों पर,
रहता था मेरा रोम-रोम
जिसकी प्रतीक्षा में रत
क्यों देव......
मेरे अकेले का दुःख कम था ???
जो तूने मेरे सूरज की मुस्कराहट
पर भी आघात किया....
कैसा है रे तू????
मेरी इतनी सी ख़ुशी भी तुझे रास ना आई??
निष्ठुर है तू
सुना था
लेकिन..
हृदयहीन भी है
नहीं जानती थी
क्यों किया ऐसा??
देख....
हवा भी गुमसुम है
पत्ते भी नहीं डोलते
जहाँ में हलचल नहीं
मंद समीर भी उदास है
अरे...
आज तो मंदिर की घंटियाँ भी चुप हैं।
बड़ी उदास है सुबह मेरी
हतभागिनी मैं तो यह भी नहीं कह सकती,
मेरे हिस्से की हँसी भी उसकी झोली में डाल दे।
हे देव......
बदल दे अपना निर्णय....
पलट दे नियति के लिखे को
लौटा दे मेरे सूरज की लालिमा
उसके दम से मेरे जीवन में रौशनी है
अँधेरे से डर लगता है देव.....
बहुत डर लगता है.....मुझे....

स्वरचित्त स्वधिकार
कुसुम शिव शंकर तिवारी
12,02,2017

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