देश और समाज में सब कुछ अच्छा चल रहा है, सिनेमा सिर्फ उतना दिखाने भर का माध्यम नहीं है. कई दफा ऐसा होता है कि आप कुछ देखते हैं, सोचते हैं, विचलित होते हैं. कुछ चीजें आपको इतना विचलित कर देती हैं कि आप अपनी बात दूसरों को सुनाना चाहते हो. ये जगह तो सरकार छीनती जा रही है. सरकार देश को सुधारे, वह सिनेमा को क्यों सुधारना चाह रही है? सिनेमा के अंदर देश की जो छवि दिखाई जाती है उसे वह क्यों सुधारने में लगी है? इससे कुछ नहीं होने वाला. ये झूठ होगा. ये सच होता तो उत्तर कोरिया विश्व का सबसे अच्छा देश होता. उन्हें कुछ मालूम ही नहीं कि उनके देश में क्या दिक्कतें हैं. एक ऐसा समाज क्यों बनाना चाहते हो जो भ्रम में रहता हो, जिसका सच्चाई से कोई वास्ता ही नहीं है. आप अच्छी दुनिया बनाओ तो हम अच्छी-अच्छी फिल्में बनाना शुरू कर देंगे, जिसमें सब कुछ अच्छा-अच्छा ही होगा.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 के मुकाबले 2015 में हिंदी सिनेमा का व्यापार छह से सात प्रतिशत तक नीचे आ गया और इसके लिए बड़ी फिल्में जिम्मेदार हैं, उनका बिजनेस कम हो गया. अच्छा बिजनेस छोटी फिल्मों ने किया. खैर यह एक पहलू है. मुझे लगता है कि इस मामले में सरकार को थोड़ी मदद करनी चाहिए. अभी सरकार फिल्मों से सिर्फ वसूली का काम करती है. फिल्म का जो बजट होता है उसका तकरीबन 40 प्रतिशत सरकार सर्विस टैक्स ले लेती है और टीडीएस कटता है. इसके बाद जब फिल्म बनकर आती है तो सरकार 40 से 100 प्रतिशत तक मनोरंजन कर लगाती है. इस पैसे से फिल्म इंडस्ट्री में वापस कुछ नहीं आता.
हाल ये है कि इस देश में फिल्म मस्तीजादे को भी 'ए' सर्टीफिकेट मिलता है और चौरंगा जेसी बाल फिल्म को भी 'ए' सर्टीफिकेट मिलता है. ऐसा क्यों होता है ये तो सेंसर बोर्ड जाने. समझ नहीं आता कि ये कैसे काम करता है. इस बोर्ड का नाम सेंसर बोर्ड नहीं है पर काम सेंसर का कर रहा है, उसका नाम है सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन. इस लिहाज से इनको फिल्म को सर्टिफिकेट देने का काम करना चाहिए. उन्हें फिल्म के सीन काटने के लिए कहना ही नहीं चाहिए. वे 'ए' सर्टिफिकेट दें इससे कोई परेशानी नहीं है, लेकिन वे ये कहते हैं पहले आप पांच सीन हटाइए फिर आपको 'ए' सर्टिफिकेट देंगे. यहां हमें दिक्कत है. इसका मतलब ये हुआ कि अगर मैं कहूं कि मैं इसके लिए तैयार नहीं तो वे कहेंगे कि सर्टिफिकेट नहीं देंगे. यानी फिल्म बैन हो गई.
ये अच्छा माहौल नहीं है. जो लोग फिल्म बनाते हैं, चाहे वो एक्टर हो या डायरेक्टर, वे बहुत मेहनत करते हैं. इससे वे फिल्म बनाने की कला को सीखते हैं. लेकिन जो फिल्म को सर्टिफिकेट देते हैं उन्होंने क्या किया है? फिल्म में क्या दिखाना चाहिए और क्या नहीं, जो ये बताने वाले हैं उनकी योग्यता क्या है. जो लोग ये निर्णय लेते हैं उन्हें अभिभावक बनकर वहां नहीं बैठना चाहिए. अभी श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक कमेटी बैठी हैं, जो इस पूरी प्रक्रिया की समीक्षा कर रही है. मैं उम्मीद करता हूं कि कमेटी की सिफारिशें आएं उसे लागू भी किया जाए. हालांकि अब तक ये सरकार सिर्फ वादों तक ही सीमित है.
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सिनेमा सेंसर
Non-Fictionदेश और समाज में सब कुछ अच्छा चल रहा है, सिनेमा सिर्फ उतना दिखाने भर का माध्यम नहीं है. कई दफा ऐसा होता है कि आप कुछ देखते हैं, सोचते हैं, विचलित होते हैं. कुछ चीजें आपको इतना विचलित कर देती हैं कि आप उसकी कहानी दूसरों को सुनाना चाहते हो. ये जगह तो स...