चैतन्य पदार्थ 
 
 
 
 
 
   चैतन्य पदार्थ का आशय मनुष्य की चेतना (आत्मा) द्वारा आंकलित किए हुए पदार्थ से है। चेतना आंखों के माध्यम से पदार्थ को देखती है, मन जिज्ञासा पैदा करता है, बुद्घि पदार्थ का आंकलन कर मन को तृप्त कर देती है। जिज्ञासा उस बिंदू पर पहुंचने के प्रयास स्वरूप होती है जहां मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर शरीर को सदा बचाए रखने की अभिलाषा करता है। वह आदिकाल से ही चेतना को प्रहरी बना उसे नष्ट होने से बचाने के लिए हर समय प्रयासरत रहता है। 
    वैसे तो हर जीव पदार्थ आंकलन अपनी चेतना के प्रादिप्रवेग अनुसार करता है मगर यहाँ जब बात मनुष्य की हो रही है तो आइये देंखे की भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का पदार्थ आंकलन उनकी बुद्घि अनुसार कैसे अलग-अलग होता है-
 
A- व्यक्ति- पदार्थ का सूक्ष्म कण परमाणु कहलाता है जो कांच की गोलियों के समान होता है जो अविभाज्य है।
B- पदार्थ का अन्तिम कण परमाणु भाज्य है, यह इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन व न्यूट्रॉन से मिलकर बना है।
C- ब्रह्मांड में सारा पदार्थ एक गोले के रूप में एक जगह पर एकत्र था। आन्तरिक दबाव के चलते उसमें महाविषफोट
    (बिगबैग) हुआ जिससे सभी ग्रह-नक्षत्रों का जन्म हुआ।
D- ब्रह्मांड में पदार्थ विशाल बादलों के रूप में बिखरा रहता है। यह सघन अवस्था धारण कर ग्रह-नक्षत्रों का निर्माण 
     करता है।
  E- ब्रह्मांड में ग्रह-नक्षत्र सदा से ऐसे ही मौजूद थे इनमें कभी कोई परिवर्तन नही होता। 
  F- पृथ्वी की उत्पति सूर्य में विषफोट होने से हुई, पृथ्वी सूर्य का एक टुकड़ा है।
  G- सूर्य के चारों ओर ग्रहाणु चक्र लगा रहे थे जिन्होने संघटित रूप धारण कर पृथ्वी का निर्माण किया है।
  H- अल्लाह महान है अत: वो ही ब्रह्मांड का निर्माता है, सभी ग्रह-नक्षत्रों पर उसी की हकुमत चलती है।
  I- भगवान शंकर जी सृष्टि के निर्माता हैं, राम कृष्ण व ब्रहमा आदि देवताओं द्वारा ग्रह-नक्षत्रों का निर्माण किया
   गया है।
  J- गॉड की मर्जी पर संसार की रचना ईशा मसीह द्वारा की गई, अत: कुल पदार्थ का निर्माण उन्ही के द्वारा संभव हुआ
   है।
 
      इस प्रकार हम देखते है कि जैसे सभी व्यक्तियों में हाथ की रेखाएं अलग प्रकार से होती हैं, उसी प्रकार हर व्यक्ति की दिमागी विचार शक्ति भी अलग-अलग होती है। अत: सभी अपनी-अपनी बुद्घि अनुसार पदार्थ के संदर्भ में अवधारणाएं निर्मित करते हैं। वैज्ञानिक हों या धार्मिक सभी की अपनी अपनी अवधारणाएं होती हैं। यहाँ तक की हर विचारशील साधारण व्यक्ति भी पदार्थ के बारे में थोड़ा बहुत ऐसा कुछ नया विचार अवश्य रखता है जो सभी से अलग होता है, और वह उसके लिए सत्य विचार होता है।
      वैज्ञानिक जब पदार्थ का आंकलन करता है तो प्रयोग व कल्पना दोनों का सहारा लेता है। प्रयोगात्मक आंकलन वह होता है जिसमें व्यक्ति पदार्थ को विभिन्न रूपों मे ढाल कर (जार, बीकर, परखनलियां, सूक्ष्मदर्शी बना) उनके माध्यम से पदार्थ को देख कर सत्य स्थापित करता है। पदार्थ का काल्पनिक आंकलन मन व बुद्घि द्वारा मनन करके किया जाता है, इसमे पदार्थ यंत्रों की आवश्यकता नही होती।
      अगर हम ध्यान से देखें तो पता चलता है कि वैज्ञानिक जो भी आंकलन करते हैं वह अस्थिर आंकलन होता है मगर धार्मिक व्यक्ति का आंकलन एक स्थिर बिन्दू पर रूका हुआ है। अल्लाह या ईश्वर ने सृष्टि रचना की है, बात यहीं पर खत्म हो जाती है। वैज्ञानिक का आंकलन अस्थिर इसलिए है क्योंकि एक द्वारा स्थापित सत्य को दूसरा असत्य करार दे देता है। वह खोजकर्ता है जो निरन्तर अज्ञात में जाने के लिए प्रयासरत है। धार्मिक व्यक्ति की प्यास एक बिन्दू को सत्य मानकर तृप्त हो चुकी होती है।
      अधिकतर ऐसा देखा जाता है कि वैज्ञानिक हों या धार्मिक सभी अपने आंकलन को सत्य करार देकर दूसरे को असत्य बतलाते हैं मगर ध्यान से देखने से पता चलता है कि न तो कोई सत्य है और न ही असत्य। मन बुद्घि जिस बिन्दू पर पहुंच कर तृप्त हो जाए वो ही सत्य है। सभी अपनी-अपनी बुद्घि से अज्ञात के रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश करते हैं। सभी एक सत्य संतुष्टि की ईच्छा रखते हैं, सभी में श्रेष्ठता के तत्व मौजूद होते हैं जो विजय की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। वर्तमान युग क्योंकि यांत्रिक युग है इसलिए वैज्ञानिक प्रयोगों को ही अधिक महत्व व सत्य करार दिया जाता है। 
      वैज्ञानिक कथन इसलिए सत्य माने जाते हैं क्योंकि वे व्यक्ति को ऐसे साधन उपलब्द करवाते हैं जिससे उसका शरीर अधिक से अधिक सुरक्षित रहे। उसे न्यूनतम श्रम से खाद्य पदार्थ मिलते रहें। वह मानव हित मे जो भी तथाकथित खोज करते हैं वह किताबों मे उकेर ली जाती हैं जिसे बच्चों के मस्तिष्क मे फिट कर दिया जाता है। इस प्रकार उपभोक्तावादी मानव मशीनों की श्रृंखला बनती रहती है जो दिन रात चलती हैं। प्राकृतिक रूप से मानव निशाचर जीवों की श्रेणी मे नही आता मगर वैज्ञानिक खोजें उसे कल कारखानों मे रात्रिकालिन शिफ्टों मे जागने पर मजबूर करती हैं।
     धार्मिक व्यक्ति जब कहता है कि पदार्थ मेंरे ईश्वर द्वारा निर्मित है तो उसके पास शेष प्रश्न बचा होता है। और वैज्ञानिक चाहे प्रयोग द्वारा सत्य स्थापित करें या कल्पना द्वारा, शेष यहाँ भी मुंह खोले खड़ा होता है। मानव नेत्र की सभी साधनों से देखने कि क्षमता इतनी ही है कि पदार्थ उसके बाद भी बचा हुआ होता है। जिस बिन्दू पर आज का वैज्ञानिक रूका हुआ है पदार्थ उससे भी आगे है जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतम की और गति करता है।
     आज तक आप लोग वैज्ञानिको के आंकलित किए हुए पदार्थ को सत्य मानते आए हैं जो मन, बुद्धि, चेतना जैसी अदृष्य शक्तियों में विश्वास नही रखते और न ही पदार्थ का आंकलन करते समय इन की विवेचना करते हैं। अब तक आप धार्मिक व्यक्तियों के पदार्थ दर्शन को सत्य मानते आए हैं जो वैज्ञानिक खोजों को असत्य करार देते हैं और अपने-अपने ईश्वरों को सत्य बतलाते हैं। अब आप ऐ से व्यक्ति के आंकलित किए हुए पदार्थ के दर्शन करेंगे जो न आस्तिक है और न ही नास्तिक। जो विज्ञान व अध्यात्म दोनो के क्रिया कलापों को ध्यान से देखता है। इस आंकलन के सत्य असत्य का निर्णय आप के द्वारा किया जाएगा।
      वैज्ञानिकों की ये एक बड़ी समस्या है कि वे भौतिकतावादी दृष्टि से पदार्थ  का अवलोकन करते हैं। वे पदार्थ दर्शन के लिए अपनी व अन्य जीवों की चेतना का अवलोकन नही करते जबकि चेतना का पदार्थ दर्शन केवल जीवों की शारीरिक संरचना की सुरक्षा के लिए होता है। अर्थात हर  जीव अपने वजूद को कायम रखने के लिए पदार्थ को देखता है। वैज्ञानिक केवल भौतिक पदार्थों का अवलोकन करते हुए प्रयोग व कल्पनाएं करते हैं, चेतना की व्यख्या तो उन्होने आज तक की ही नही जबकि पदार्थ दर्शन तो वो ही कर रही है।
      सभी चेतनाएं केवल शरीर की सुरक्षार्थ पदार्थ देखती हैं। मानव चेतना भी ठोस पदार्थ को स्पष्ट, जल को अस्पष्ट देखती है। वायु को इसलिए नही देखती क्योंकि उसके शरीर से टकराने से सामान्यता कोई हानि नही होती। सभी जीवों के पास ऐसे अनेकों उपाय है जिससे वे अपने शरीर को हानि पहुँचने से बचाते हैं। दृष्टी भी उन्ही उपायों मे से एक है।
      चेतना व पदार्थ दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। न तो चेतना को पदार्थ से अलग किया जा सकता है और न ही पदार्थ का चेतना की अनुपस्थिति में कोई वजूद हैं। वह अगर पदार्थ से अलग हो जाए तो पदार्थ का अस्तितव ही नष्ट हो जाता है। अर्थात किसी एक चेतना के नष्ट होते ही उसके लिए पदार्थ का भी अन्त हो जाता है। यद्घपि शेष चेतनाएं पदार्थ  को देखती हैं तथापि नष्ट होने वाली चेतना के लिए इसका कोई मुल्य नहीं होता।
     ब्रह्मांड में जितना भी पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहा है वह सारा चैतन्य पदार्थ है। वैज्ञानिक अभी तक न तो वृहत को माप सकें हैं और न ही वह सूक्ष्मतम के अन्तिम छोर को ही यन्त्रों द्वारा पकड़ सके हैं। पदार्थ के दोनो छोर शून्य  मे विलीन होते हैं फिर चाहे वह वृहत वाला छोर हो या सूक्ष्म वाला हो। 
      आइये हम चेतना के द्वारा (मेरी) चेतनाओं की विस्तृत व्यख्या करते हैं और उसके पश्चात पदार्थ को चेतना के साथ जोड़ कर देखेगे, मगर सबसे पहले चेतना, पदार्थ, अर्थात चैतन्य पदार्थ को एक नजर देख लिया जाए-
 
* चेतना जिसे नेत्रों के माध्यम से देखती है। मन, बुद्घि द्वारा जिसकी गणना करती है वह पदार्थ कहलाता है, या चेतना  की
   अर्ध-सजग अवस्था में बुद्घि के अनुसार जिससे ब्रह्मांड की रचना हुई वह पदार्थ है।
* वह पदार्थ जो दहन क्रियाओं मे भाग लेता हुआ संयुक्त संरचनाओं का रूप धारण कर अपनी व्यख्या अपने आप करने की
   शक्ति रखता है सजीव पदार्थ कहलाता है।
* चेतना के दृष्टिगत जैव पदार्थ धीमी दहन क्रियात्मक पदार्थीय ढांचे हैं जो स्वत्‌ ही कुल पदार्थ में जारी फैलाव क्रिया मे
  भाग लेते हैं।
* सजीव पदार्थ आदि से पृथ्वी में हो रहे विघटन चक्र (दहन क्रियाएँ) का एक अति सूक्ष्म रूप हैं।
* मानव चेतना द्वारा पदार्थ के स्वरूप की सत्य व्यख्या करना संभव नहीं, क्योंकि सभी जीवधारी अपनी-अपनी चेतना के
  प्रदिप्र वेग की शक्ति के आधार पर पदार्थ आंकलन करते है। अर्थात सभी जीवों को पदार्थ अलग-अलग किस्म का दिखाई
   देता है।
* मानव चेतना अनुसार पदार्थ तीन रूपों में मौजूद है ठोस गैस एवं तरल।
* मानव चेतना के दृष्टिगत पदार्थ निर्माण जन्य सबसे सूक्ष्म कण परमाणु व छोटा कण अणु कहलाता है, ऐसा वैज्ञानिकों
  का मत है।
* चेतना जिसे स्पष्ट देखती है, ठोस, जिसे अस्पष्ट देखती है, तरल, व जो दिखाई न दे, केवल आभास हो गैसीय पदार्थ
   कहलाता है।
* पदार्थ की निरन्तर सघन व विरलन रूप धारण करने की प्रक्रिया परिवर्तन चक्र कहलाती है।
* जब किसी चेतना का जन्म होता है तो उसके लिए नये ब्रह्मांड की रचना होती है और मृत्यु के साथ ही उसका अन्त हो
  जाता है।
* एक अन्तराल के बाद चेतना नष्ट हो जाती है मगर पदार्थ फिर भी शेष रहता है जिसे अन्य चेतनाएं देखती हैं, दृष्टा
  होती है।
* पदार्थ निरन्तर गतिशील रहता है अत: इसका कोई निश्चित आकार नहीं होता।
* किसी एक चेतना की स्थिति सजगता में पदार्थ दृष्टा व सुप्तता में पदार्थ शून्य होती है
* चेतना की सजग अवस्था पदार्थ का व सुप्त अवस्था अपदार्थ का प्रतिनिधित्व करती है।
* पदार्थ जब संयुक्त अवस्था त्यागता है तो उसमें से ऊर्जा नष्ट हो जाती है मगर उसके सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रूप में विखंडित
   होने के उपरान्त भी पदार्थ तब तक नष्ट नहीं होता जब तक वह शून्य  का रूप धारण न कर जाए।
* ऊर्जा वह शक्ती है जो पदार्थ का संयुक्त आबंध कायम रखती है। जैव-अजैव कारकों सहित सभी ब्रह्मांडीय पिण्ड ऊर्जा
   द्वारा ही अपना वजूद कायम रखे हुए हैं।
* पदार्थ की अन्तिम संयुक्त इकाइ ऊर्जा त्याग कर परमाणु के रूप में जब खंडित होती है तो वह अपदार्थ के रूप में फैल
  कर अथाह शून्य  का एक हिस्सा बन जाती है।
* चेतना के आंकलन अनुसार ब्रह्मांड में पदार्थ वृहत एवं सूक्ष्मतम रूप में फैलता जा रहा है।
* चेतना पदार्थ का आंकलन अपने वजूद (शारीरिक ढांचे) को सर्वोपरि मान कर करती है।
* चेतना अनुसार जैसा वह नेत्रों से देखती है, बुद्घि से आंकलन करती है, कानों से ध्वनि ग्रहण करती है, ये ही पूर्ण सत्य है,
  मगर ऐसा है नही।
* चेतना अस्थाई रूप में एक अन्तराल के पश्चात प्रज्वलित होने वाली लौ की मानिंद है।
* जैसे मनुष्य का सत्य उसका अपना आंकलित किया हुआ पदार्थ है ऐसे ही शेष जीवों का भी अपना-अपना पदार्थ होता
   है। शेष प्राणी भी अपनी-अपनी चेतन क्षमता के अनुसार पदार्थ को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते हैं।      
* संयुक्त पदार्थ का अति सूक्ष्म कण परमाणु है मगर प्रकाश, विधुत तरगें,रेडियो तरगें सभी पदार्थ के अति सूक्ष्म रूप हैं।
* पदार्थ का अन्तिम विघटनात्मक रूप शून्य है जो कि फैलाव का प्रतिनिधित्व करता है।
* शून्य  का अन्तिम संकुचित रूप पदार्थ है जो कि संयोंजकता का प्रतिनिधित्व करता है।
* चेतना स्थूल नेत्रों से केवल ऐसे पदार्थ की संयुक्त इकाइयों को ही देख सकती है जिसकी संयुक्त शक्ति से वह प्रज्वलित
   होती है।  
*जैव-अजैव पदार्थ फैलाव प्रक्रिया द्वारा अपनी अनुकृतियां बनाता रहता हैं जिससे नई श्रृंखलाओं का जन्म होता है। 
* यह प्रमाणित है कि पदार्थ में निरन्तर फैलाव क्रिया जारी है मगर शून्य का पदार्थ में रूपांतरण होता इसलिए नही
  दिखाई देता क्योंकि मानव शरीर पदार्थ से बना है।
* पदार्थ का मुल्य किसी एक चेतना के लिए जन्म लेने से नष्ट होने तक ही होता है।

    पदार्थ के बारे में जानने से पहले मानव चेतना के बारे में जानना जरूरी है क्योंकि चेतना के माध्यम से ही पदार्थ कि व्यख्या संभव हो सकती है। यहाँ चेतना शब्द का प्रयोग मनुष्य की समस्त शक्तियों जिनके द्वारा वह सजग रहता है। तर्क-वितर्क करता है, यानी मन, बुद्घि, आत्मा तीनों को एक शब्द में समाहित कर किया जा रहा है। वैसे चेतना अगर विचार शून्य अवस्था में हो तो उसके लिए पदार्थ का कोई महत्व नहीं होता। मन मे चलने वाली तर्क-वितर्क की वह शक्ति जिसे बुद्धि कहा जाता है, वो पदार्थ का विशलेषण करती है,  जिज्ञासु भी वो ही होती है।
   आदिकाल से ही पदार्थ में निरन्तर परिवर्तन चल रहा है। वह फैलता जा रहा है। ठोस तरल में परिवर्तित हो जाता है। तरल गैस का रूप धारण करता है और अन्तत: वह अणुओं, परमाणुओं में बिखर जाता है। यह कार्य दहन क्रिया द्वारा सम्पन होता है। चेतना और कुछ नहीं बल्कि परिवर्तित होते हुए पदार्थ का एक…

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पाठकगण के लिए निवेदन पत्र।

 प्रिय पाठक,
         नमस्कार।
      आशा है आप कुशल मंगल से होंगे। प्रियवर किसी भी लेखक की कहानी, उपन्यास, निबंध के रुप में जो मौलिक रचना पढ़ने के लिए आप के हाथ में होती है उसे लिखने में कई बार वर्षों लग जाते हैं। उसके बाद उसे प्रकाशित करवाने में कॉपी संख्या के हिसाब से न्यूनतम बीस, पच्चीस हजार लगते हैं। अब ई-बुक प्रकाशित करवाने का भी पाँच-छ हजार रेट निकाला हुआ है। ये पत्र इसलिए लिख रहा हूँ कृपया पुस्तक खरीद कर पढ़े। अगर लेखक के अपनी पुस्तक पर खर्चे पैसे पूरे भी हो जाते हैं तो वह आपको उत्तसाह के साथ और भी अच्छी रचनाएँ पढ़ने को देगा।
    अगर आप पुस्तक ई-बुक के रुप में पढ़ रहें हैं तो कृपया कम से कम 100रु. लेखक को अनुदान समझ अवश्य भेजें।
                                                                                                            Nafe Singh kadian 

 
 

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⏰ Last updated: Oct 31, 2023 ⏰

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