मेरी यात्रा

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मेरे लिए अपनी मंजिल तक का सफर कोई सामुद्रिक यात्रा नहीं बल्कि किसी ऊंचे पहाड़ की चढ़ाई करने जैसा रहा है।
जैसे - जैसे ऊंचाई बढ़ती गई, और तापमान घटता गया अक्सर शारीरिक कष्ट से गुजरती। पर उससे भी असहनीय होता, जब एक - एक कर कई सारे रिश्ते हाथ से फिसल जाते। मां सच ही कहा करती हैं, “जो जितना आगे बढ़ता है वह दूसरों को उतना ही खटकने लगता है”। कुछ ऐसी ही मानसिक वेदना से लड़ कर और इस वेदना को हरा कर, अपने सपनों के शिखर पर सफलता का ध्वज फहराना हैं।
ऐसा नहीं है कि सफलता की खुशी बांटने वक्त मैं अकेली रहूंगी, उस ऊंचे शिखर पर मेरे साथ वो लोग जरूर रहेंगे जो इस सफर में मेरे साथ एक चट्टान बन कर रहें, या जिनके होने से ही मेरा यह सफर रहा है। और कभी - कभी जब इस सफर की थकान से टूट जाती, मन ऊब जाता, खिन्न हो जाता तो मेरे वही रिश्ते प्रभावित होते, पर फिर भी वह मुझे सबसे ज्यादा समझते।
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