जिंदगी और किताब

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मॉं कहती है, "असल जिंदगी और किताबों की दुनिया में काफी फर्क होता है," पर मुझे तो किस्से -कहानियों में भी असल जिंदगी का प्रतिबिंब दिखता है
और असल जिंदगी में हर तरफ किताबें ही दिखती हैं।
हर एक शख्स किसी किताब जैसा लगता है,
कोई आसान सा लगता है तो कोई मुश्किल लगता है,
कोई दूसरी भाषा में लिखा है तो किसी को पढ़ने
में भाषा की भी जरूरत नहीं।
किसी को पूरा पढ़ना नामुमकिन सा है, हम लोगों के
कुछ पन्ने ही पढ़ सकते है लेकिन कभी-कभी
कुछ पंक्तियों से अधिक पढ़ने का मौका ही
नहीं मिलता। किताबों को समझने के लिए
उन्हें बार - बार पढ़ सकते है पर इंसानों को
समझना काफी जटिल है।
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