samiksha pehchan by zahid khan

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उपन्यास पहचान की खासियत इसकी कथा का प्रवाह है। अनवर सुहैल ने कहानी को कुछ इस तरह से रचा-बुना है कि शुरू से लेकर आखिर तक उपन्यास में पाठकों की दिलचस्पी बनी रहती है। कहानी में आगे क्या घटने वाला है, यह पाठकों को आखिर तक मालूम नहीं चलता। जाहिर है, यही एक मंझे हुए किस्सागो की निशानी है। छोटे-छोटे अध्याय में विभाजित उपन्यास की पूरी कहानी, फ्लेश बैक में चलती है। सिंगरौली रेलवे स्टेशन के प्लेटफाॅर्म पर कटनी-चैपन पैसेंजर के इंतजार में खड़ा युनूस, अपने पूरे अतीत में घूम आता है। उसकी जिंदगी से जुड़ी हुई सभी अहम घटनाएं एक के बाद एक, किसी फिल्म की रील की तरह सामने चली आती हैं। युनूस के अब्बा-अम्मा, खाला सकीना, फौजी खालू, जमाल साहब, यादव जी, पनिकाईन, मदीना टेलर के मालिक बन्ने उस्ताद, बब्बू, कल्लू, मोटर साईकिल मिस्त्री मन्नू भाई, सरदार शमशेर सिंह उर्फ ‘डाॅक्टर’, सिंधी फलवाला और उसका बड़ा भाई सलीम यानी सभी किरदार एक-एक कर मानो युनूस के सामने आवाजाही करते हैं। अनवर सुहैल ने कई किरदारों को बेहतरीन तरीके से गढ़ा है। खासकर खाला सकीना और मदीना टेलर के मालिक बन्ने उस्ताद।

पारिवारिक हालातों के चलते कहने को यूनुस ने स्कूल में जाकर कोई सैद्धांतिक तालीम नहीं ली। लेकिन जिंदगी के तजुर्बों ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया ‘‘फुटपथिया लोगों का अपना एक अलग विश्वविद्यालय होता है, जहां व्यवहारिक-शास्त्र की तमाम विद्याएं सिखाई जाती हैं। हां फर्क बस इतना है कि इन विश्वविद्यालयों में ‘माल्थस’ की थ्योरी पढ़ाई जाती है न डार्विन का विकासवाद। छात्र स्वमेव दुनिया की तमाम घोषित, अघोषित विज्ञान एवम् कलाओं में महारत हासिल कर लेते हैं।’’ (पेज 72) गोया कि यूनुस और उसके जैसे तमाम सुविधाहीन बच्चे दुनिया में ऐसे ही बहुत कुछ सीखते हैं। ‘‘बड़े भाई सलीम की असमय मृत्यु से गमजदा यूनुस को एक दिन उसके आटोमोबाईल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक यानी मोटर साईकिल मिस्त्री मन्नू भाई ने गुरू-गंभीर वाणी में समझाया था-‘‘बेटा मैं पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन ‘लढ़ा’ जरूर हूं। अब तुम पूछोगे कि ये लढ़ाई क्या होती है तो सुना, एम्मे, बीए जैसी एक डिग्री और होती है जिसे हम अनपढ़ लोग ‘एलेलपीपी’ कहते हैं। जिसका फुल फार्म होता है, लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, समझे। इस डिग्री की पढ़ाई फर्ज-अदायगी के मदरसे में होती है। जहां मेहनत की काॅपी और लगन की कलम से ‘लढ़ाई की जाती है।’’ उपन्यास में जगह-जगह ऐसे कई संवाद हैं, जो जिंदगी को बड़े ही दिलचस्प अंदाज से बयां करते हैं। खासकर, भाषा का चुटिलापन पाठकों को मुस्कराने के लिए मजबूर करता है।

 अनवर सुहैल ने उपन्यास के नैरेशन और संवादों में व्यंग्य और विट् का जमकर इस्तेमाल किया है। सुहैल जरूरत पड़ने पर राजनीतिक टिप्पणियां करने से भी नहीं चूकते। खासकर, आजादी के बाद मुल्क में जो सामाजिक, राजनीतिक तब्दीलियां आईं, उन पर वे कड़ी टिप्पढ़ियां करते हैं। मसलन ‘‘इस इलाके में वैसे भी सामंती व्यवस्था के कारण लोकतांत्रिक नेतृत्व का अभाव था। जनसंचार माध्यमों की ऐसी कमी थी कि लोग आजादी मिलने के बाद भी कई बरस नहीं जान पाए थे कि अंग्रेजी राज कब खत्म हुआ।’’(पेज-16) आजाद हिंदुस्तान के उस दौर के हालात पर सुहैल आगे और भी तल्ख टिप्पणी करते हैं,  ‘‘नेहरू के करिश्माई व्यक्तित्व का दौर था। देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य। नए-नए लोकतंत्र में बिना शिक्षित-दीक्षित हुए गरीबी, भूख, बेकारी, बीमारी और अंधविश्वास से जूझते देश के अस्सी प्रतिशत ग्रामवासियों को मतदान का झुनझुना पकड़ा दिया गया।’’ (पेज-17) उपन्यास का कालक्रम आगे बढ़ता है, मगर हालात नहीं बदलते। मुल्क की पचास फीसद से ज्यादा आबादी के लिए हालात आज भी ज्यों के त्यों हैं। अलबत्ता, गरीबी रेखा के झूठे आंकड़ों से गरीबी को झुठलाने की नाकाम कोशिशें जरूर होती रहती हैं।

कुल मिलाकर, लेखक अनवर सुहैल का उपन्यास पहचान न सिर्फ कथ्य के स्तर पर बल्कि भाषा और शिल्प के स्तर पर भी प्रभावित करता है। उपन्यास का विषय जितना संवेदनशील है, उतनी ही संजीदगी से उन्होंने इसे छुआ है। पूरी तटस्थता के साथ वे स्थितियों का विवेचन करते हैं। कहीं पर जरा सा भी लाउड नहीं होते। साम्प्रदायिकता की समस्या को देखने-समझने का नजरिया, उनका अपना है। बड़े सीन और लंबे संवादों के बरक्स छोटे-छोटे संवादों के जरिए, उन्होंने समाज में घर कर गई साम्प्रदायिकता की समस्या को पाठकों के सामने बड़े ही सहजता से प्रस्तुत किया है। उपन्यास पढ़कर ये दावा तो नहीं किया जा सकता कि कहानी, मुल्क के सारे मुसलमानों की नुमाइंदगी करती है। लेकिन बहुत हद तक कथाकार अनवर सुहैल ने थोड़े में ज्यादा समेटने की कोशिश, जरूर की है। उम्मीद है, उनकी कलम से आगे भी ऐसी ही बेहतरीन रचनाएं निकलती रहेंगी।

                                                              महल काॅलोनी, शिवपुरी मप्र

                                                  मोबाईल: 94254 89944

किताब: पहचान,   लेखक: अनवर सुहैल

प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,  मूल्य: 200 रूपए

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