samiksha pehchan by zahid khan

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उपन्यास में पूरी कहानी, युनूस के बजरिए आगे बढ़ती है। युनूस, निम्न मध्यमवर्गीय भारतीय मुसलिम समाज के एक संघर्षशील नौजवान की नुमाइंदगी करता है। जो अपनी एक स्वतंत्र पहचान के लिए न सिर्फ अपने परिवार-समाज से, बल्कि हालात से भी संघर्ष कर रहा है। जिन हालातों से वह संघर्ष कर रहा है, वे हालात उसने नहीं बनाए, न ही वह इसका कसूरवार है। लेकिन फिर भी युनूस और उसके जैसे सैंकड़ो-हजारों मुसलमान इन हालातों को भोगने के लिए अभिशप्त हैं। गोया कि उपन्यास में युनूस की पहचान, भारतीय मुसलमान की पहचान से आकर जुड़ जाती है। युनूस समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए जिस तरह से जद्दोजहद कर रहा है, वही जद्दोजहद आज मुसलिम समाज के एक बड़े तबके की  है। उपन्यास की कथावस्तु बहुत हद तक किताब की शुरूआत में ही उर्दू के प्रसिद्ध समालोचक शम्शुरर्रहमान फारूकी की इन पंक्तियों से साफ हो जाती है-‘‘जब हमने अपनी पहचान यहां की बना ली और हम इसी मुल्क में हैं, इसी मुल्क के रहने वाले हैं, तो आप पूछते हो कि तुम हिन्दुस्तानी मुसलमान हो या मुसलमान हिन्दुस्तानी।’’ ऐसा लगता है कि अनवर सुुहैल ने फारूकी की इस बात से ही प्रेरणा लेकर उपन्यास की रचना की है।

बहरहाल, उपन्यास पहचान की कहानी गुजरात से सैंकड़ों किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर बसे सिंगरौली क्षेत्र की है। एशिया प्रसिद्ध एल्यूमिनियम प्लांट और कोयला खदानों के लिए पूरे मुल्क में पहचाने जाने वाले इस क्षेत्र में ही युनूस का परिवार निवास करता है। युनूस वक्त के कई थपेड़े खाने के बाद, यहां अपनी खाला-खालू के साथ रहता है। घर में खाला-खालू के अलावा उनकी बेटी सनूबर है। जिससे वह दिल ही दिल में प्यार करता है। युनूस की जिंदगी बिना किसी बड़े मकसद के यूं ही खरामां-खरामां चली जा रही थी कि अचानक उसमें मोड़ आता है। मोड़ क्या, एक भूचाल ! जो उसकी सारी दुनिया को हिलाकर रख देता है। एक दिन गुजरात के दंगों में युनूस के भाई सलीम के मारे जाने की खबर आती है। ‘‘सलीम भाई का पहनावा और रहन-सहन गोधरा-कांड के बाद के गुजरात में उसकी जान का दुश्मन बन गया था.....।’’ (पेज-114) सलीम की मौत युनूस के लिए जिंदगी के मायने बदल कर रख देती है। उसे एक ऐसा सबक मिलता है, जिसे सीख वह अपना घर-गांव छोड़, अपनी पहचान बनाने के लिए निकल पड़ता है। एक ऐसी पहचान, जो उसके धर्म से परे हो। उसका काम ही उसकी पहचान हो।

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