शुरुआत

By ShubhamShimpi5

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शुरुआत- एक लघुकथा More

शुरुआत

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By ShubhamShimpi5

     हुत दूर से अपनी कदमो की कसरत करते हुये, थक हार कर एक पत्थर पर आकर मैं बैठ गया। उस वीरान रेगिस्तान में इतनी गरम हवा चल रही थी की कोई मजबूत जिस्म भी भुट्टे की तरह सेख जाए। उस तपते गर्मी ने कदम सख्त कर दिए थे और गला सुखा, अपने कंधे पर लटकाए बैग से मैंने पानी की बोतल निकाली और उसे झट से मुँह से लगा लिया। रेगिस्तान में पानी से बुझी प्यास को आब-ए-हायत का एहसास क्यों कहा जाता हैं? यह मुझे समझ आ गया। मैंने अपने गले में टंगे अपने DSLR को उतारा और उसकी लेंस साफ करने लाग। हवाओं में चलती धूल के कारण वो काफी खराब नजर आ रही थी। तभी मेरी नजर रेगिस्तान में खड़े उस एक अकेले घर पर गयी। ईंटों और पत्थर से खड़े उस टेढ़े मेढ़े मकान को में घर कहूँ?  या झोपडी...यही उलझन थी।

    मैने दरवाजे पर दस्तक लगायी, अंदर से किसी की आहट सुनी पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला। मैंने फिर एक बार कोशिश की… इस बार दरवाजा खुला और एक अधेड़ उम्र का आदमी मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उसका बदन काफि मैला था, शायद हवा में लिपटी मिटटी उसके बदन के पसीने चिपक गयी थी। उसकी दाढ़ी तो बड़ी थी पर उसके बाल भी उसकी इस रेगिस्तान में अकेले मौजूदकी के मेरे मन में उठे सवालो की तरह उलझे हुए थे। उसके सर पर उसका धरम चिल्लाती हुई एक गोल सफेद टोपी थी। और उसकी निगाहें उसके बाहर आते से ही मुझे सर से पाँव तक घूर रही थी। मैं कुछ कहता उससे पहले जनाब बोल पडे,

"मुसाफिर हो?"

मैने सिर्फ हामी में अपना सर हिलाया।

"जलापूर देखना चाहते हो?"

शायद वो कोई नजूमी ही था। उसके सवालो में ही मेरे मौजूदा मक़्सद के सारे जवाब थे। मैंने फिर हामी भरी। उसने आगे कोई सवाल न कर अपने जूते पहन लिए, कोने में रखी एक लकड़ी की काठी हाथ में ली और दरवाजे पर कुंडी लगा कर वो किसी एक समत निकल पड़ा। दो कदम आगे चल कर उसने मुड कर मुझे देखा और कहा, 

"चलिए जनाब, देरी हो रही है।"

मौजुदा हालात से चौका हुआ में, जो उस आदमी के बंद दरवाज़े पर खड़ा था, अभी उसके पीछे चलने लगा।

आखिर कौन था वह, वो अकेला इस रेगिस्तान में रह रहा था? जहां दूर दूर तक कोई घर नही। कही वो कोई लुटेरा तो नहीं? जलापुर ले जाकर मुझे ठगेगा तो नहीं? ऐसे कई सवाल मेरे जेहन में डर की पैदाइश कर रहे थे। आखिर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उसे पुछा,

"जी आपको कैसे पता की मुझे जलापुर जाना है?"

" आपके गले में टांगे कॅमेरे से। जलापुर की तसवीरें कैद करने यहाँ कई कैमरा वाले आते है।" उसने मुस्कुराकर कहा।

"सुना है, लोगो को वहाँ के जले, टूटे खंडरो की तसवीरें खींचना पसंद हैं?"

"हाँ, लोगो को तबाही का तमशा देखना बेहद पसंद हैं।" यह कह कर वो खुद अकेला जोर जोर से हसने लगा।

"जी आपका नाम क्या है जनाब?" मैंने बात आगे बढ़ते हुए पुछा।

"आगाज, नीचे देख कर चलिए जनाब, गीली मिट्टी बचा कर, वो इंसान को अंदर खीच लेती है।" उसने अपना नाम भी बताया और साथ में एक सलाह भी दी। मैं अब रेत में जमीन देख कर पाँव रखने लाग।

"काफ़ी महंगा कैमरा लिए तस्वीर खींचते हो जनाब, काफ़ी तजुर्बागर लगते हो।" अगाज ने कहा।

"नही इतना तजुर्बा नहीं… अभी तो शुरुआत है।" मैंने जवाब में कहा।

आगाज फिर जोरों से हसने लाग। उसकी आये बात पर हसने की यह आदत मुझे पसंद नहीं आयी। मैंने उससे चिढ़कर पुछा,

"इसमे हँसाने वाली क्या बात हैं?"

" माफ़ करना जनाब, लेकिन आपके जुमले का वो लफ्ज़...वो सुन कर हसी रोक न सका।" उसने अपनी सफाई में कहा।

"कौनसा लफ्ज़?" मैंने पुछा।

"वो....शुरुआत" उसने कहा और वो फिर हँसने लगा।

"क्या आपने यह लफ्ज़ पहली बार सुना है?" मैंने पुछा।

"बिल्कुल नहीं जनाब, हां एक वक़्त था जब इस लफ्ज़ से हम बिलकुल वाकिफ़ नहीं थे पर अब शुरुआत इस लफ़्ज़ पे एक किताब छाप दूँ ऐसा किस्सा है मेरे पास। वही कुछ यादें याद आ गायी।" अगाज ने कहा।

"जरा हमें भी सुना दे यह किस्सा।" मैंने फ़रमाइश की।

"जी बड़ा लम्बा है।" उसने कहा।

"हमारा सफर भी तो लम्बा है जनाब, आप किस्सा सुनाए।" मैंने उसे मानते हुए कहाँ।

उसने चलते चलते ही एक गहरी सांस ली और किस्सा सुनाना शुरू किया,

"बहुत साल पहले की बात हैं, दोनों मुल्कों में भरी जंग का माहौल था। शायद जंग ही उन दोनों मुल्कों की जेहन में जगे उस गुस्से को खामोश करने का हल था। उसी जंग के बीच, दोनों मुल्कों के बीच पीस रहा हमारा बदनसीब गाव था। एक बार, एक सुबह, हमारे गाँव में एक आर्मी अफसर की जीप आयी। गांव के बीच में खड़े चबूतरे के पास वो जीप रुक गयी। उसी जीप से एक वर्दी वाला आर्मी अफसर नीचे उतरा। अब वो अफसर किस मुल्क का था ये जानने समझने की हमारी उम्र नहीं थी। पर उसके वर्दी पे काफी सितारे लगे हुए थे और छाती पे शाबाशी के मैडल भी थे। उसके हाथ में एक परछी थी। उसने चबूतरे पर चढ़कर उस परछी को चबूतरे के पेड़ पर चिपका दिया और वो निकल गया। वो कोई इत्तेला नामा (सूचना) था। उसके जाते ही चबूतरे पर एक ही भीड़ जमा होने लागी। उस भीड़ में कही मैं भी था, अपनी अब्बू की कमीज पकडे हुये। उस इत्तेला नामे पर बड़े अक्षरों में लिखा हुआँ था...जंग की शुरुआत, और नीचे गाँव खाली कर, जान बचाकर भाग जाने वाली हिमादत देता हुआ एक मज़मून था। हर कोई उस इत्तला नामे को बड़ी गौर से पढ़ रहा था...अब्बु भी। उस इत्तला नामे के हर लफ्ज़ से मैं वाक़िफ़ था… जंग भी.. जिसके किस्से और अमल में हररोज देखता और सुनता था, बस एक लफ्ज़ जिस से शायद में कभी रुबरु नहीं हुआ वो था शुरुआत।

   कई लोगो ने उस इत्तेला नामे को पढ़ कर जान बचाते हुए गाँव छोड़ने का फैसला किया, तो किसी ने 'जान सलामत तो टोपियाँ हजार' यह एक बुज़दिल सोच हैं, ऐसा कह कर गाँव न छोड़ने का फैसला किया। इस सोच से मेरे अब्बू ने भी हामी खायी, 'हमारे पुरखों के जिस्म इसी जमीन में दफ़न है, हमारे भी यही होंगे और हमारे बच्चों के भी' ऐसा मानो अब्बू ने ऐलान ही कर दिया था।  

   जंग की हवाओं में कई लोग जिद पे डटे हुए थे, कई हजरात में लगे हुए थे और में एक खोज में कि आखिर यह शुरुआत का मतलब क्या होता है?

   मैने अब्बू से पूछा तो उन्होंने शुरुआत का मतलब शुरुआत ही होता है ऐसा कहकर मुझे टाल दिया, अम्मी से पूछा तो उन्होंने उसने रात के बाद खडी होती  सुबह का नाम दे दिया, जो हमे मुनासिब न लगा। हमें याद हैं की हमने एक सिपाही से भी शुरुआत का मतलब पूछा था, तो उसने 'जंग ही शुरुआत है और जंग ही खत्म' ऐसा कह कर 'ख़त्म' जैसे एक और लफ़्ज़ को मेरे अन सुलझे लफ्जों की कोठी में डाल दिया था। फिर मैंने उसे खत्म का मतलब पूछा तो उसने कहा, ' जब सबकुछ जलकर राख होने लगता है तो उस जलती आग में हमें वो खत्म नजर आता है'। उसकी यह बड़ी बातें मेरे समझ से बाहर थी।

  पर एक दिन,  जब मैं यूं ही अपने गांव के गली मोहल्ले से गुजर रहा था, जो काफी खाली मकानों से सुना हो गया था, तब मैंने एक 'धुम्...' ऐसी जोर की आवाज सुनी। कानों के पडदे फाड़...वो आवाज सीना चीर कर निकल गायी। वो शायद हमारे मोहल्ले से ही आयी थी। मैं दौड़कर हमारी घर की तरफ निकाला तो दूर सें ही आग की बड़ी लपटे दिखाई दी। मैं और पास गया तो देखा हमारा घर जल रहा था। मैंने घर की खुली खिड़की से अम्मी और अब्बू को आग के लपटों में जलते, करहाते और दम तोड़ते हुए देखा। मैं दौड़कर अंदर जाना चाहता था, लेकिन किसी अनजान शख्स ने मेरी कलाई इतनी जोर से पकड़ी हुई थी की में हिल ही नहीं पाया। उसके बाद एक पत्थर की छत के नीचे मैंने खुदको सलामत पाया शायद वो शख्स ही मुझे वहां खीच लाया हो। फिर 'धुम्' ऐसी आवाज़ में मैंने और कई धमाके सुनें, कई चिल्लाने की, जान की भीख मांगते हुए करहाने की और कई मदद की पुकार लगाती हुयी कई आवाज़ें मेरे कानो पर पड़ रही थी। और मैं पत्थर पे पीठ रख्खे होश खो बैठा हुआ था। 

जब मैंने होश संभाला, तो जान बचे जिद्दियों को इत्तेलाम नामे का एहतराम रखते हुए हजरात करते देखा, कई न मने जिद्दियों को आग में राख हुआ पाया और कुछ लाचारों को मदद की भीख मांगते भी।

मैने हजरात हो रहे काफिलों में खौफ देखा, आग के मलबे में गड़े जिद्दियों में ख़त्म देखा और मेरी तबाह और उजड़ी ज़िन्दगी में एक और नयी शुरुआत की खोज को देखा। और तब जाके मुझे शुरुआत का मतलब समझ आया।"

आगाज़ ने अपनी कहानी खत्म की। उसकी आँखों में आंसू नहीं थे, शायद इसी याद को दोहराते वो सुख गए थे। हम अब जलापुर की जमीन पर खड़े थे। जहाँ कई जले टूट घर थे। और वो गाँव वीरान पड़ा था।

-Chupchaap Charlie

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