Professor sahab ka dabba

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बनारस की धरती, विद्वानों की धरती कही जाती है!वहीं से एक अद्भुत विद्वान प्रोफेसर का प्रादुर्भाव हुआ,प्रोफेसर "अलीजान"।
जैसा नाम वैसा ही व्यक्तित्व (character) था उनका।

    शहंशाह की तरह ही खान-पान के बहुत शौकीन थे,  उनको चेलों के साथ रहना और पान खाना बहुत पसंद था।प्रोफेसर साहब में सभी गुण थे, वह  जितने आराम तलब थे उतने ही कर्मठ भी, समय पर कठिन से कठिन काम करने में पीछे नहीं हटते थे, बस उनका मूड होना चाहिए! फिर चाहे रात हो या दिन वह काम करके ही दम लेते थे!

प्रोफेसर साहब हर क्षेत्र में ज्ञान (knowledge) रखते थे, इसलिए वह विद्वान कहे जाते थे, कुछ लोग तो उनको मदारी भी बुलाते थे, अपनी इसी विवता के कारण वह कहीं एक जगह ठहर  ना सकें
वह अपने ज्ञान को हर क्षेत्र में आजमाते थे, उनका ज्ञान तो ऐसा था कि ,क्या कहिए!  क्या सिलाई ,क्या  रसोई ,क्या इलेक्ट्रिशियन ,क्या प्लंबर ,क्या लेक्चर , क्या लेखन, सब में निपुण, स्पष्ट वक्ता के साथ उनका बड़ बोलापन उनके सब गुणों को कमतर कर देता था, इसी ज्ञान की श्रंखला में उनके पाककला के शौक को देखते हुए किसी ने उनसे कह दिया-"आप डब्बा चलाएं खूब चलेगा।"

बस तब क्या था! प्रोफेसर साहब ने सोचा * मैं मांसाहारी (non-veg)भोजन बहुत अच्छा पका ता हूं, क्यों ना इसमें हाथ आजमाया जाए। बस! यहीं से  शुरुआत हुई "प्रोफेसर  का  डिब्बा" की।

बस यह बात दिमाग में आते ही दुकान, बर्तन, रसोईया, सहायक, और भी साजो सामान की खोज शुरू हो गई, प्रोफेसर साहब का दरबार पान की दुकान पर ही लगता था और उनके सभी कार्य  लगभग वही से संचालित होते थे, जो कमाया था उसे एक बार फिर से अपने व्यापार ज्ञान पर  बलिदान करने को तैयार थे!

प्रोफेसर साहब का कोई भी व्यापार छोटे से नहीं शुरू होता था ,उसे पूरे साजो सामान के साथ ही शुरू करते थे, उसकी पूरी व्यवस्था पहले ही हो जाती थी काम आए या ना आए वह समय और चेलो पर निर्भर करता था!

प्रोफेसर साहब की  बृहद तैयारी को देखते हुए, परिवार वालों ने कहा-" इतना पैसा लगाने की क्या जरूरत है, आप पहले घर से ही कुछ डिब्बे शुरू करें, जब 15-20   डिब्बा का आर्डर आने लगे तब आप अपना रेस्टोरेंट खोल ले !" यह बात प्रोफेसर साहब को इस बार जल्दी समझ आ गई? सो अपनी पाक कला का प्रचार प्रसार और डब्बा चलाने का प्रयास घर से ही शुरू  करने का विचार कर, इश्तिहार (Advertisement) दे दिया----

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