उधार

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उस दिन में और मनीष फिर देर से स्कूल पहुँचे थे और हमेशा की तरह ताराचंद गुरुजी ने हमें कक्षा में घुसने नही दिया पर हम भी अब इस बेज़्जती के आदि हो चुके थे आख़िर होते भी क्यों नही ताराचंद गुरुजी का ये गुस्सा हमारे लिए वरदान की तरह था,अगर वो हमें कक्षा से नही निकालते तो हमें कैसे पता चलता की सर्दी की ठंडी सुबहों मे भौतिकी के कठिन पाठ पढ़ने से ज़्यादा मज़ा ,सत्तू काका की कचौरियों में आता है

हमारे स्कूल के बगल वाली सड़क के अंत मे सत्तू काका की छोटी से दुकान थी जहाँ वो गमछा बाँधे एक छोटे से चूल्‍हे पर कचौरियाँ बनाते रहते थे,दुकान तक पहुँचने के लए सड़क से दस मिनट या दीवार फाँद कर दो मिनट लगते थे और अब तो जैसे वह दीवार भी रोज सुबह हमारा स्वागत करने को तैयार रहती थी , काका ज़रा दो कचौरी और देना,चार कचौरी खाने के बाद मनीष ने अपनी माँग रखी,सत्तू काका ने भी हंसते हुए उसे दो कचौरी और दे दी | हम हमेशा यही किया करते थे , दो-दो कचौरी से शुरू हुआ सफ़र आठ-आठ कचौरी पर जाकर रुकता था और काका के हाथ तन्मयता से हमारे लिए कचौरियाँ बेलते जाते थे

उन दिनो हमारी जेब मै ज़्यादा पैसे नही रहा करते थे ,पर सत्तू काका ने हमे कभी इस बात का एहसास नही होने दिया, वो हमेशा कहते बच्चों पहले पेट भर के खा लो ,जब पैसे हों तब दे जाना , में एक सभरांत परिवार का लड़का था पिताजी ने हमेशा सिखाया था कि उधारी ग़लत आदत होती है पर काका के स्नेह और उनकी कचौरियों के स्वाद के आगे मे पिताजी क़ी सीख भूल जाता था और इस तरह हमारा उधार ख़ाता बढ़ता गया काका को भी हमारी नीयत पर पूरा भरोसा था , जब भी कभी मे पैसे नहीं है बोलकर कचौरी के लिए मना करना चाहता, वो ज़बरदस्ती दोना मेरे हाथ में देकर कहते की लालाजी जब बड़े हो जाओ तो अपने बाबूजी से कहकर हमारे लिए एक बड़ा होटल बनवा देना,उधार उतर जायगा |

पर हमारे वो स्वप्निल दिन ज़्यादा दिनों तक नही चल पाए,रोज-रोज कक्षा से गायब रहने क़ी खबर ताराचंद गुरुजी ने प्रधानाध्यापक तक पहुँचा दी और अगले दिन हम सुबह काका क़ी दुकान क़ी कचोरियों क़ी भाप से गरम होने क़ी जगह प्रधानाध्यापक जी के डंडे क़ी मार से गर्म हो रहे थे | उस दिन के बाद हम पर जमाने भर सख्ती लागू हो गयीं और काका क़ी दुकान पर जाना छूट गया , पर उनका उधार चुकाने क़ी मंशा सदैव दिल मे रही |

करीब चार महीने बाद परीक्षा का परिणाम आ गया,सब लोगों क़ी उम्मीदों के विपरीत,में और मनीष प्रथम श्रेणी से पास हो गये थे पिताजी ने मेरे पास होने क़ी खुशी मे मुझे सौ रुपये का एक कड़क नोट इनाम मे दिया,जब मे रिज़ल्ट कार्ड लेने स्कूल पहुँचा तो मनीष मेरा इंतजार कर रहा था हम दोनो ने एक दूसरे क़ी तरफ देखा और नज़रें मिलते ही हमारी आँखें चमक उठीं,आज उत्सव का दिन था और उत्सव क़ी खुशियाँ बिना काका क़ी कचौरियों के कैसे पूरी हो सकती थी हम दोनों तेज-तेज कदमों से काका क़ी दुकान पर पहुँचे,आज दस मिनट वाला रास्ता भी दो मिनट मे पूरा हो गया पर अब ना वहाँ सत्तू काका थे ना ही उनकी दुकान साथ वाले दुकानदार से पूछा तो उसने बताया क़ी काका ने किसी आदमी से कुछ पैसा उधार लिया था और जब वो उसे चुका नही पाए तो उस आदमी ने कुछ गुण्डों के साथ उनकी दुकान मैं आग लगा दी,काका इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और ह्रदय आघात से चल बसे

वो एक छोटा सा कमरा था,पानी क़ी सीलन से दीवारें गिरासू हो चुकी थी,घर मे सिर्फ़ एक महिला और दो बच्चे थे काका ने बताया था क़ी उनके बेटे क़ी मौत के बाद वो ही अपनी बहू और बच्चों का पेट पाल रहे थे मैने मनीष क़ी तरफ देखा,उसने अपनी जेब में हाथ डाला और अब हमारे हाथ मै तीन सौ के नोट थे हमनें वो पैसा चुप चाप उन मासूम हाथों में रख दिया और धीमे -धीमे कदमों से अपना उधार चुकाकर लौट पड़े |

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⏰ Last updated: Sep 27, 2009 ⏰

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