गुरूर

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अभी वक्त ज्यादा नही गुज़रा था। उसके आखरी खत को आए हुए अभी एक महीना ही हुआ था। पहले भी ऐसा कई दफा हुआ है जब उसे महीनों लगे हैं एक खत भेजने में। पर ना जाने क्यूं इस बार दिल में एक बेचैनी सी भरी है। क्यों ऐसा लगता है कि कहीं ये उसका आखिरी खत तो नहीं? जब चार पन्नों की बातें एक कागज़ में सिमटेने लगें तो कई खयाल गुजरते हैं इस दिल से। क्या अब हम उनके खास नही रहे? क्या अब हमारी जगह किसी और ने ले ली है? खयाल अनगिनत आते हैं पर एतबार एक पर भी नही। इतना कच्चा थोड़ी है ये रिश्ता। फिर क्या वजह है इस बेरहम सन्नाटे की? कई बार सोचा है की एक खत और लिख डालूं। क्या पता इस बार जवाब आ ही जाए। पर दिल का गुरुर भी तो है साहेब। इश्क में टूटना मंजूर है पर झुकना नही। कहते हैं वक्त सब जख्म भर देता है, पर कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो वक्त के साथ और गहरे होते चले जाते हैं। कुछ दूरियां अगर वक्त रहते ना भरी जाएं तो वो रिश्तों में जिंदगी भर का फासला ले आती हैं। अभी खयालों में खोई ही थी की दरवाज़े पर एक चिट्ठी आती है -
"लफ्जों की बंदिशों से आज़ाद है,
इश्क ये हमारा कल भी था,
ये आज भी आबाद है।"

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