देह की मृत्यु का विशुद्ध चेतना अथवा आत्मा पर कोई प्रभाव नही होता ब्रह्म आत्मा अथवा परमात्मा शाश्वत नित्य शुद्ध और मुक्त है। यमाचार्य ब्रह्मतत्व के कथन का आश्वासन देते है। उतम गुरू अनावश्यक आश्वासन देकर जिज्ञासु शिष्य के धैर्य को टूटने नही देते।
योनिमन्ये प्रपधन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।।७।।
शब्दार्थः यथाकर्म यथाश्रुतम् = जैसा किसीका कर्म होता है जैसा जिसका श्रवण होता है, शरीरत्वाय= शरीर धारण के लिए, अन्ये देहिनः= अनेक जीवात्मा, योनिं प्रपघन्ते= योनियो को प्राप्त होते है, अन्ये स्थाणुम् अनुसंयन्ति= अनेक स्थाणुभाव का अनुसरण करते है।
वचनामृतः अपने कर्म तथा ( श्रवण किये हुए भाव) के अनुसार अनेक जीवात्मा जगम् योनियो को प्राप्त होते है अनेक स्थावर हो जाते है।
सन्दर्भः मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा की अवस्था का वर्णन है।
दिव्यामृतः परब्रह्म समस्त अस्तित्वका आधार है तथा वह सर्वत्र है। संसार मे दो प्रकार के पदार्थ है अचेतन ( जड स्थावर, अचर एक ही स्थान पर स्थिर) तथा चेतन ( चर जीवित जगम्) अचेतन पदार्थो मे चेतना प्रसुप्त रहती है तथा चेतन पदार्थो मे चेतना जाग्रत होती है। वृक्ष स्थावर होते है तथा उनमे चेतना अविकसित अथवा किंचित् जाग्रत अवस्था मे होती है।
मृत्यु के पश्चात मनुष्य का जीवात्मा अपने कर्म अथवा श्रवण द्वारा प्राप्त भाव के अनुसार स्थावर वृक्षो अथवा चेतन प्राणियो मे प्रवेश कर लेता है। अंत मे जैसा मति वैसा गति होता है। चैतन्यस्वरूप ब्रह्म ही जगत् का एकमात्र आधार है।१
य एष सुप्मेषु जागर्ति कामं कामं पुरूषो निर्मिमाणः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्योति कश्चन।। एतद् वै तत्।। ८।।
शब्दार्थः यः एषः = जो यह कामम् = ( जीवो के कर्म के अनुसार) भोगो का निर्मिमाणः= निर्माण करनेवाला, पुरूषः= परमात्मा जो परमपुरूष है, सुप्तेषु= ( सबके) सो जाने पर, ( प्रलयकाल मे भी) जागर्ति= जागता है, तत् शुक्रम् तत् ब्रह्म= वही विशुद्ध अथवा शुभ ज्योति स्वरूप तत्व है वही ब्रह्म है, तत् एंव अमृतम् = वही अमृत अविनाशी उच्यते= कहा जाता है, तस्मिन्= उसीमे, सर्वे लोकाः श्रिताः = सारे लोक आश्रित है, तत् कश्चन
कठोपनिषद्-दिव्यामृत (शिवानन्द)
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