दौडती रही दुनिया छाया को पकड्ने में
मैं समय से लम्हे चुरा के जी गया I
जीवन की आपा धापी में सब अशान्त थे
कुछ खूब पा लिए कुछ फिर कंगाल थे
कुछ महलों में उसे खोजते थे
कुछ मांग मांग अब बेजुबान थे
मैने पाया उसे अपने ही सीने में
सब्र के अमृत की हर बूँद पी गया
दौडती रही दुनिया छाया को पकड्ने में
मैं समय से लम्हे चुरा के जी गया I
वो और की तलाश में आपनो को खोते थे
कुछ कुछ देर को खुश कुछ आँसु बहाते थे
कुछ झुठी कस्मों का व्यापार खुल् के करते थे
कुछ सब जान के भी कहने से डरते थे
मैने सच् के खंजर को खाया अपने सीने में
सब जान के भी अपने ओठों को सी गया
दौडती रही दुनिया छाया को पकड्ने में
मैं समय से लम्हे चुरा के जी गया I
वो शब्दों की तिजारत को मोहबत का नाम देते थे
कुछ मेरे तेरे शब्दों के घर में जीते थे
कुछ जिस्मों के मिलन को प्यार कहते थे
कुछ बन्धन में बन्धने को प्यारा उपहार कहते थे
बन्धन में नहीं मैंने खुद को तलाशा अकेले में
तन ढलता गया मन जख्मों को सी गया
दौडती रही दुनिया छाया को पकड्ने में
मैं समय से लम्हे चुरा के जी गया I
Copyright@2012 Raja Sharma