कभी-कभी
कभी-कभी
कुछ भी बतियाना अच्छा नही लगता
और चुप रहें तो
दम घुटने सा लगता है
वो समझ लेती थीं
मेरे मन की बात
और दुलार से फेरती थीं माथे पर हाथ
तब ऐसा चटियल नही था सर
कितने आहिस्ता से
सहलाती थीं बालों को
और खींच लेती थीं सर अपनी तरफ
कि गोद की आंच में जमी बर्फ पिघल जाती थी
दिल-दिमाग और रूह की ज़मीन पर
उग आते थे बगीचे और उड़ने लगती थीं तितलियाँ
फूलों की क्यारियाँ खुशबूएं बेखेरने लगतीं
कभी-कभी
कुछ भी बतियाना अच्छा नही लगता
और तब आपकी याद आती है अम्मी...
डरपोक
भीरु हो जाता है वो
जो बना दिया जाता है सर्व-शक्तिमान
कैदी हो जाता है वो
जो अपनों से दूर हो जाता है
चुप्पा हो जाता है वो
जो लोगों को सन्देश देने लगता है
सीमित हो जाता है वो
जो असीमित चाह रखता है
कम-कम दीखता है वो
जो जन-दर्शन के योग्य हो जाता है
और किसी दिन अचानक
जो निर्भीक हो, लोगों के बीच
उठने-बैठने लगे
खूब-खूब बोलने लगे
तो समझ लो कि अब वो
नही रहा सर्व-शक्तिमान
और उसे चाहिए फिर एक बार
हमारी हसरतों, सपनों, चाहतों के एवज
पुरजोर समर्थन...
भरपूर सम्मान....
मेहनतकश
कितना कम सो पाते हैं वे
यही कोई पांच-छः घंटे ही तो
यदि हुई नही बरसात
पड़ा नही कडाके का जाड़ा
तो उतने कम समय में वे
सो लेते भरपूर नींद
बरखा और शीत में ही
अधसोए गुजारते रात
उनसे पहले उठती घरवालियाँ
चूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँ
अचार या नून-मिरिच के साथ पोटली में गठियातीं
तब तक छोड़कर बिस्तर वे
किसी यंत्र-मानुष की तरह
फ़टाफ़ट होते तैयार
और निकल पड़ते मुंह-अँधेरे ही
खदान की तरफ
आखिर बीस कोस साइकिल चलाना है
जुड़े रहते तार उनके इस तरह
कि पहले मोड पर मिल जाते कई संगी
एक राऊण्ड तम्बाखू-चून की चुटकी
होंठ और मसूढ़ों के बीच दबा
पिच-पिच थूकते,
जो नागा किया उसके बारे में
अंट-शंट बतियाते,
पैडल मारते तय करते दूरियां
उन्हें नही मालूम
कि प्रधान-मंत्री सडक योजना क्या है
वर्ना इन पथरीली पगडंडियों पर
आदिकाल से यूँ ही नही चलना पड़ता उन्हें
छोटे नाले-नदी, जंगल-टीले पार करते-करते उग आता सूरज
और उन्हें तब तक दिखलाई देने लगते कोयला-खदान के चिन्ह
रात पल्ली से लौटते श्रमिक मिलते
तो राम-राम हो जाती
एक तसल्ली भी मिलती
कि खदान चालू है
काम मिल ही जाएगा,
बिना काम नही लौटना पड़ेगा उन्हें...
वे खदान पहुँचते हैं तो
बड़ी आसानी से कोयले के ढेर में
घुल-मिल जाते हैं
ऐसे दीखते हैं जैसे हों कोयला की तराशी हुई चट्टानें
जो ये जानते ही नही कि उनमे छुपी हुई है बिकट आग
कि उनमे छुपा है बिजली बनाने का तिलस्म
कि उनमे पेवस्त है स्टील बनने का रसायन
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि इस जनम यही लिखा उनके भाग में
और भाग के लिखे को कौन मिटा सकता है...
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि भगवान जिसे चाहे देता दुःख-पीड़ा
और जिसे चाहे देता सुख-सुविधाएं अपार
लेकिन मुंह अँधेरे इन साइकिल चालकों में
एक भोले है, एक भूपत है, एक गंगा है
जिनके पास सवाल ही सवाल हैं
और बुज़ुर्ग मजदूर सुमारु उन्हें
समझाता रहता भर-रास्ता
उन्हें डांटता और सबर करने को कहता
लेकिन भोले, भूपत और गंगा के सवाल
पूरब में उगते सूर्य की आभा में दमक उठते
और एक नया रास्ता सूझता उन्हें
उस रास्ते में दीखते अनगिन ठोकर,
अंतहीन यातनाएं
और फिर दूर-दूर तक अँधेरा ही अँधेरा...
क्या इसका मतलब ये समझा जाए ]
कि खदान पहुंचते ही
उनके मन में उठे सवालात दफ़न हो गए
वे नहीं जानते कि सवाल जो उठा है मन में
ये पहली बार नही आया है
इससे पहले जाने कितनी पीढियां खत्म हो गईं
इन सवालों से टकराते-जूझते
इसी प्रयास में कि इस लड़ाई को
जल्द ही जीत लेंगे वे
लेकिन कुछ भी नहीं बदला
पूरब से आकाश पर सूरज बदस्तूर उगता रहा
चाँद निकलता रहा
धरती घूमती रही
पेड़-पौधे-फूल उगते-कटते रहे
और हर बार मेहनतकश के सीनों में
यूँ ही सवाल पनपते और दफ़न होते रहे.....
चैत की बारिश
चैत्र-रामनवमी के बाद
जवारा-पुजाई से फुर्सत पाकर
एक ही काम तो बचता है
फिर बाल-बच्चों, भाई-बहनों का बियाह
नात-हित में आना-जाना
लू-गर्मी से बचते-बचाते
निभाना दुनियादारी
तभी तो आएगा कोई द्वार हमारे भी..
शादी-लगन का समय है ये
खरीफ की फसल कटाई भी करनी है
लेकिन सरकार की तरह भगवान् को भी
ये का हो गया है रे...
कोई नही सुनने वाला
चैत में ओला-पाथर-पानी
कैसे कटेगी जिनगानी हो रामा...
विश्व-बाज़ार में घटा कच्चे तेल का दाम
इस्लामी आतंकवादियों ने किये कत्ले-आम
चलती कार में गैग-रेप
गाँव-गिरांव तक पहुंचाई जाती
शीर्ष-पुरुष के मन की बात
जबकि हम झेल रहे बेमौसम बरसात
और खण्ड-खण्ड टूट रहे स्वप्न
छितरा रही आकांक्षाएं
घबराता तन-मन
कोई तो करो जतन
कोई भी देवी-देवता-भगवन
या सब हो अपने ही में मगन....
चैत में बरसात की पीड़ा को
सिर्फ और सिर्फ किसान ही महसूसता है
सत्ता या विपक्ष नही
टीवी या अखबार नही
नेता या पत्रकार नही
और कवि... बेशक...नही............
नदी
उनके आसपास जो है नदी
वो पानी से भरपूर रहती
बारहमास....
जबसे पृथ्वी बनी तबसे
जिस पर तैरती रहती हैं कश्तियाँ
असंख्य लोगों की क्षुधा शांत करती नदी
जिसके किनारों पर उग आये बेशुमार
कसबे-शहर-महानगर
रात-बिरात नदी के पानी में
जगमगाती बत्तियां जगरमगर
दूर से आलोकित होते नगर..
ये नदी का जादू नही तो और क्या है...?
मैं क्या करूं
मेरे आसपास कोई नदी नहीं
नदिया-नाले, तालाब-कुंए हैं
जो अक्सर सूख जाते चौमासे में भी
और प्यास की भटकन से थके-हारे जीव-जन्तु
करते वर्षा का आव्हान
और अतिवृष्टि से भी बचाना चाहते
अपना अस्तित्व
काश कोई नदी चुपचाप उतर आती
मेरे गाँव के उत्तर में ठाड़े सिद्धबाबा पहाड़ी से
जिसपर शिवरात्री के दिनों में भरता मेला
और त्रिनेत्र विराजते वहां जाने कब से
क्या कभी उनकी जटाओं से निकलकर
मेरे गाँव से भी बहेगी कोई नदी....
ये कैसा दौर है बन्धु
ये कैसा दौर है बन्धु
कि रंगदार हो रहे लोकप्रिय
दरिन्दे कैमरे की आँख में झाँक रहे हैं
कातिलों को मिल रही शह
बर्बरता की कोई हद नही होती
कत्ल करने का कोई मंज़र अच्छा नही होता
दुत्कार, धिक्कार, प्रताड़ना भी
कम नही किसी हत्या के प्रयास से
आसमानी किताबों को पढ़कर
हो रही हत्याएं
आसमानी किताबों को पढ़कर
की जा रही भर्त्सना, मज़म्मत...
ये कैसा दौर है बन्धु
कि न्याय के बड़े घर के सामने
आँख पर पट्टी बांधे खड़ी है मूरत
तराजू के पलड़े डोल रहे हैं
ऐसे कठिन समय में
भारी-भरकम किताबों में
खोज रहे विद्वान व्याख्याएं
अल्पमत विपक्ष वाक-आउट कर रहा है
कवि-लेखक किसी थानेदार की तरह
रोजनामचा भर रहे हैं
बांच लो चाहे अखबार
बदल डालो चाहे कितने चैनल
कहीं से भी नही आ रहीं अच्छी खबरें...
ये कैसा दौर है बन्धु..?