बेतुके से ख़्याल हैं फिर भी खूब सोचते हैं,
नक्काशियों से महल कमाल है फिर भी खरोंचते हैं,
देखा हमने कि सब जैसे तैसे भी तो रह लेते हैं यहाँ पर,
फिर ना जाने क्यों हम उसकी सृष्टि में अपनी सृष्टि खोजते हैं।
बेतुके से ख़्याल हैं फिर भी खूब सोचते हैं,
नक्काशियों से महल कमाल है फिर भी खरोंचते हैं,
देखा हमने कि सब जैसे तैसे भी तो रह लेते हैं यहाँ पर,
फिर ना जाने क्यों हम उसकी सृष्टि में अपनी सृष्टि खोजते हैं।
किस गुल से हुस्न टपकता है किस खुश्ब की रवानी रहती है
तेरे नर्म होंठो की अरक हर गुलशन की कहानी कहती है
........ (जब सहबा ए कुहन....)
और जबसे सुना है उनके खयालात हमारी कब्र को लेकर
जनाब! हमें तो अब मरन...